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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३२३ कर निरूपण करता है । इसलिये ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, इसलिये उसका त्याग करना चाहिये ।' सोनगढ़साहित्य में इस कथन पर बहुत जोर दिया गया है और कहा गया है कि जैनशास्त्रों के अर्थ करने की यह पद्धति है और सच्ची श्रद्धा करने की रीति है। अतः इसका खुलासा किसप्रकार है ? समाधान- यदि उपर्युक्त सिद्धांत को सर्वत्र लगाया जावे जो 'सर्वज्ञता तथा संसार व मोक्ष' का सर्वथा अभाव हो जायगा । 'सर्वज्ञता' व्यवहारनय से है, क्योंकि 'स्व' अर्थात् 'ज्ञायक' और 'पर' अर्थात् 'ज्ञेय' के सम्बन्ध को बतलाया है, जैसे 'घी का घड़ा' आधार - प्राधेयसम्बन्ध को बतलाता है। इसीप्रकार 'संसार' भी व्यवहारनय से है, क्योंकि कर्मजनित रागादिभावों को जीव के कहकर 'जीव' को संसारी कहा है ( स. सा. गा. ४६ ) और संसार के अभाव में मोक्ष का भी प्रभाव हो जायगा । मोक्ष के अभाव में मोक्षमार्ग और मोक्षमार्ग के उपदेश का भी प्रभाव हो जायगा । अतः 'व्यवहारनय द्वारा जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर इसको छोड़ना चाहिये' इस सिद्धांत द्वारा 'सर्वज्ञ, संसार व मोक्ष' को असत्यार्थ मान उसका श्रद्धान छोड़ना पड़ेगा । जिस जीव को मोक्ष का श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यादृष्टि है ( स. सा. गा. २७४ ) जिसप्रकार निश्चयनय द्वारा निरूपण किया हुआ, 'निश्चयनय' की अपेक्षा से सत्यार्थ है, उसीप्रकार व्यवहारनय के द्वारा निरूपण किया हुआ 'व्यवहारनय' की अपेक्षा से सत्यार्थ है । यदि व्यवहारनय के' निरूपण' को असत्यार्थ श्रद्धान कर छोड़ा जावे तो 'स-स्थावरजीवों को मसल देने में भी' हिंसा का अभाव होगा ( स. सा. गा. ४६ आत्मख्याति टीका ) । 'व्यवहारनय असत्य है' ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहारनय का अनुसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है । अतः जो व्यवहारनय बहुतजीवों का अनुग्रह करनेवाला है उसी का आश्रय करना चाहिये । ( क. पा. ज. ध. पु. १, पृ. ८ ) । सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं । अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इसप्रकार का विभाग नहीं करते हैं । व्यवहारनय का विषय व्यवहारनय की दृष्टि से भूतार्थ है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से अभूतार्थ है; जैसे पदार्थ को नानापर्यायों से अनुभव करने पर अन्यत्व भुतार्थ है तथापि द्रव्यस्वभाव से अनुभव करने पर अन्यत्व प्रभूतार्थ है ( स. सा. गा. १४, आत्मख्याति टीका ) । निश्चय या व्यवहार इन दोनों नयों में से किसी एकनय की दृष्टि से पदार्थ को देखने पर अन्यनय का विषय दृष्टिगोचर नहीं होता है अर्थात् उस न की दृष्टि में अन्य नय का विषय अविद्यमान है अथवा असत्यार्थ है । अतः एकनय की दृष्टि से पदार्थ को देखना एकदेश अवलोकन है और दोनों नयों की दृष्टि से पदार्थ को देखना सर्वावलोकन है । सर्वावलोकन ( अनेकान्तदृष्टि ) से पदार्थ में दोनों विरोधीभाव अर्थात् दोनों नयों का विषय ( अन्यत्व और अनन्यत्व ) विरोध को प्राप्त नहीं होते ( प्र. सा. गा. ११४ की टीका ) । अतः व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ नहीं है और निश्चयनय सर्वथा भूतार्थ नहीं है । कोई-कोई व्यवहारनय और निश्चयनय के निरूपण में विशेषता न जानकर दोनों निरूपण को एक ही अपेक्षा से मानते हैं, उनको समझाने के लिये मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय सात में व्यवहारनय द्वारा निरूपण असत्यार्थ है ऐसा कहा है । जैसे निश्चयनय से मिट्टी का घड़ा' कहा जाता है; और व्यवहारनय से 'घी का घड़ा' कहा जाता है । 'मिट्टी का घड़ा' कहने का अभिप्राय यह है कि 'घड़ा मिट्टी का बना हुआ है, मिट्टीमय है और मिट्टी से अभिन्न है ।' 'घी का घड़ा' कहने का अभिप्राय यह है 'घड़े में घी रखा है, अर्थात् घड़े और घी के आधार प्राधेयसम्बन्धको बतलाया है' यदि कोई 'घी का घड़ा' और 'मिट्टी का घड़ा' इन दोनों वाक्यों में 'का' शब्द का समान प्रयोग देखकर और वक्ता के अभिप्राय को न समझकर यह मान लेते कि 'घी का घड़ा' कहने का भी यह अभिप्राय है कि 'घड़ा घी का बना हुआ है, घीमय है, घी से अभिन्न है' उसको समझाने के लिये मोक्षमार्ग प्रकाशक में यह कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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