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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३२१ व्यवहार, विकल्प, भेद तथा पर्याय इन शब्दों का एक ही अर्थ है। णिच्छयववहारणया मूलमभेयाणयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेओ दवपज्जत्थिया मुण्ह ॥ ४ ॥ ( आलापपद्धति ) टिप्पणी-निश्चयनया द्रव्यस्थिताः व्यवहारनयाः पर्यायस्थिताः । "व्यवहारनयाः किल पर्यायाधितत्वात्.......... निश्चयनयः तु द्रव्याश्रितत्वात्।" ( स. सा. गा० ५६ टीका ) व्यवहारनय का विषय पर्याय है और निश्चयनय का विषय द्रव्य है। जिस नय का विषय पर्याय है वह व्यवहारनय है, क्योंकि पर्याय व व्यवहार एकार्थवाची हैं। पर्याय सर्वदा सत नहीं है, किन्तु कादाचित्क सत् है अतः पर्याय अभूतार्थ है। परन्तु खर-विषाणवत् सर्वथा अवस्तु नहीं है। अतः व्यवहारनय या उसका विषय झूठ नहीं है । व्यवहारनय का विषय पर्याय कादाचित्क होने से द्रव्य का स्वभावभूत भाव नहीं हो सकता है, अतः व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है। यदि व्यवहारनय के या उसके विषय को झूठ माना जाय तो निम्न आर्ष ग्रन्थों से विरोध आ जायगा। गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में णमो जिणाणं' इत्यादिरूप से मंगल किया है। यदि कहा जाय व्यवहारनय असत्य ( झूठ ) है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है । अतः जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करनेवाला है उसी का आश्रय करना चाहिये ऐसा मन में निश्चय करके गौतमस्थविर ने चौबीसअनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है । ( ज. प. पु. १ पृ. ८ ) "तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् बसस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः । तथा रक्तोद्विष्टोविमूढो जीवो बद्धयमानो मोचनीय इति तमंतरेण तु रागद्वषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।" (स. सा. गाथा ४६ टीका ) यहाँ पर श्री अमृतचन्द्राचार्य ने बतलाया है कि व्यवहारनय के बिना हिंसा का अभाव हो जायगा और हिंसा का अभाव होने से बंध का भी प्रभाव हो जायगा, क्योंकि निश्चयनय जीव को शरीर से भिन्न कहता है और उसका एकांत करने से त्रस-स्थावर जीवों का घात निःशंकपने से करना सिद्ध हो जायगा। जैसे भस्म के मर्दन करने में हिंसा का अभाव है उसीतरह से निश्चयनय से त्रस-स्थावरजीवों के मारने में भी हिंसा नहीं सिद्ध होगी और हिंसा के अभाव में बंध का भी अभाव ठहरेगा। व्यवहारनय के बिना रागी-द्वेषी-मोहीजीव कर्म से बंधता है और उसको छुड़ाता है अर्थात् मोक्ष के उपाय का उपदेश व्यर्थ हो जायगा और इससे मोक्ष का भी अभाव हो जायगा, क्योंकि निश्चयनय राग-द्वेष-मोह से जीव को भिन्न दिखाता है अतः निश्चयनय से न मोक्ष है और न मोक्षमार्ग है। व्यवहारनय से ही बंध, मोक्ष और मोक्षमार्ग है। ___ यदि व्यवहारनय या उसके विषय को असत् माना जायगा तो उपर्युक्त दोनों दूषण आ जायेंगे अर्थात् मोक्ष और मोक्षमार्ग का अभाव हो जायगा । व्यवहारनय से मोक्ष और मोक्षमार्ग दोनों सिद्ध होते हैं अतः व्यवहारनय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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