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________________ १३१४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : २. यद्यपि स्वभाव की अपेक्षा से सभी प्रात्माएँ समान हैं तथापि किन्हीं जीवों के वह स्वभाव व्यक्त हो गया है और किन्हीं जीवों के वह स्वभाव व्यक्त नहीं हुआ है । सभी जीवों के वह स्वभाव व्यक्त है, यदि ऐसा मान लिया जावे तो धर्मोपदेश व धर्माचरण की कोई आवश्यकता न रहेगी तथा सभी केवलज्ञानी व सूखी होने चाहिये, किन्तु वर्तमान में हम सब न तो केवलज्ञानी हैं और न सुखी हैं। प्रतिसमय अपने ही अन्तरंग में होने वाले सूक्ष्मपरिणमन हमको ज्ञात नहीं होते तथा नानाप्रकार की प्राकुलताओं के कारण हम निरन्तर दुःखी रहते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि वह स्वभाव हममें अभिव्यक्त नहीं हुआ है स्वभाव की व्यक्तता और अव्यक्तता ये दो अवस्थाएँ प्रात्मद्रव्य की हैं। अतः व्यवहारनय का विषय 'पर्यायकृत भेद' आत्मद्रव्य में किसी अपेक्षा पाया जाता है। प्रवचनसार गाथा १० वीं में स्वयं श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा कि पर्याय के बिना पदार्थ नहीं और पदार्थ के बिना पर्याय नहीं है। पदार्थ द्रव्य, गुण और पर्याय में रहनेवाला और अस्तित्व से बना हया है। इसीप्रकार श्री उमास्वामी श्राचार्य ने भी मो. शा. अ. ५ सूत्र ३८ में कहा है कि 'द्रव्य गुण पर्याय वाला है। अत: इन आगम प्रमाणों से भी द्रव्य में गुणअपेक्षित व पर्यायापेक्षित भेद सिद्ध हो जाते हैं। ३. व्यवहारनय के तीसरे विषय 'पराश्रित' पर विचार करने से वह भी जीवात्मा में पाया जाता है। ज्ञानावरणादि चार घातियाकर्मों का नाश हो जाने पर प्रात्मा में केवलज्ञान प्रगट होता है। वह केवलज्ञान समस्त लोकालोक को और तीनों कानों के समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है क्योंकि बाधक कारणों का अभाव हो गया है। अर्थात् केवलज्ञान हो जाने पर सर्वज्ञ हो जाता है। सम्पूर्ण परपदार्थों को जानने वाला सर्वज्ञ होने से सर्वज्ञता भी व्यवहारनय का विषय है। श्री १०८ कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार गाथा ३५६ और ३६१ में कहा है कि ज्ञायक निश्चनय से पर का ज्ञायक नहीं है, किन्तु व्यवहारनय से परद्रव्य को जानता है। नियमसार गाथा १५९ में श्री १०८ कुन्दकुन्द भगवान ने कहा कि 'व्यवहारनय से केवली भगवान सब जानते और देखते हैं, निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को जानता और देखता है।' इसप्रकार व्यवहारनय के तीनों विषय प्रात्मा में विद्यमान हैं। व्यवहारनय के द्वारा जीव द्रव्य के गुण और पर्यायों का ज्ञान हो जाने से जीव प्रात्मा का ही ज्ञान हो जाता है क्योंकि गण और पर्यायों के समूह का नाम तो द्रव्य है' अथवा द्रव्य अपनी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्याय का प्रमाण है। जिसको जीव आत्मा का बोध हो गया उसको स्व का निश्चय हो गया और 'स्व का निश्चय' सम्यग्दर्शन है। जीव अजीव आदि तत्त्वों का तथा स्व का बोध कराने में व्यवहारनय कारण है, अतः व्यवहारनय जीव के लिये प्रयोजनवान है। इसी बात को श्री पद्यनन्दि आचार्य ने पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका श्लोक ६०६ में इस प्रकार कहा है व्यवहारो भूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्ध नयः । शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥ संस्कृत टीका-व्यवहारः भूतार्थः भूतानां प्राणिनाम् अर्थः भूतार्थः व्यवहारः देशितः कथितः । शुद्धनयः सत्यार्थः कथितः । ये यतयः मुनयः शुद्धनयम् आश्रिताः ते मुनयः परमं पदं प्राप्नुवन्ति । १. "गुणपर्ययवद द्रव्य" || 3 || मोक्षशास्त्र अध्याय ।। ५ ॥ 2. 'एच-दविम्मि जे अत्थ-पज्जया वयण-पज्जया चावि । तीदाणागय-भूदा तावदियं तं हवड दरवं ।।" (गोम्मटसार प्पीवकांड गाथा पृ८२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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