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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२८१ आत्मना वर्तमानानां द्रव्याणां निजपर्ययः । वर्तनाकरणात्कालो भजते हेतुकर्तृ ताम् ॥ ४२ ॥ न चास्य हेतुकर्तृत्वं निःक्रियस्य विरुध्यते । यतो निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृत्वमिष्यते ॥४३ ॥ अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा परिणमन करनेवाले द्रव्यों के कालद्रव्य हेतुकर्तृता को प्राप्त होता है, क्योंकि वह कालद्रव्य वर्तना कराने वाला है । यद्यपि कालद्रव्य निष्क्रिय है, तथापि इस कालद्रव्य की हेतुकर्तृता विरुद्ध नहीं है, क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्तृता मानी जाती है । प्रश्न यह होता है कि कालद्रव्य के परिणमन में कौन निमित्त है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि कालद्रव्य स्वयं के परिणमन में और दूसरे द्रव्यों के परिणमन में निमित्त है। न चैवमनवस्था स्यात्कालस्यान्याव्यपेक्षणात् । स्ववृत्तौ तत्स्वभावत्वात्स्वयं वृत्तेः प्रसिद्धितः ।।२२।१२॥ श्लोकवातिक यदि कोई यों कहे कि धर्मादिक की वर्तना कराने में काल द्रव्य साधारणहेतु है तो कालद्रव्य की वर्तना में भी वर्तयिता किसी अन्यद्रव्य की आवश्यकता पड़ेगी और उस अन्यद्रव्य की वर्तना कराने में भी द्रव्यान्तरों की आकांक्षा बढ़ जाने से अनवस्थादोष होगा । श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि हमारे यहाँ इसप्रकार अनवस्थादोष नहीं पाता है, क्योंकि कालद्रव्य को अन्यद्रव्य की व्यपेक्षा नहीं है। अपनी वर्तना करने में उस काल का वही स्वभाव है, क्योंकि दूसरों की वर्तना कराने के समान कालद्रव्य की स्वयं निज में वर्तना करने की प्रसिद्धि हो रही है, जैसे आकाश दूसरों को अवगाह देता हुआ स्वयं को भी अवगाह देता है, ज्ञान अन्य पदार्थों को जानता हुअा भी स्वयं को जान लेता है । ( श्लोकवार्तिक पु. ६ पृ. १६० ) यदि यह कहा जाय कि जिसप्रकार कालद्रव्य निज परिणमन में स्वयं निमित्त है उसीप्रकार अन्य द्रव्य भी अपने परिणमन में अपने आप निमित्त क्यों न हो जावें? ऐसा कहना ठीक नहीं है। जिसप्रकार घट स्व-परप्रकाशक नहीं है, किन्तु ज्ञान स्व-परप्रकाशक है उसीप्रकार अन्यद्रव्य स्व-पर परिणमन में निमित्त नहीं है, किन्तु कालद्रव्य स्व-परपरिणमन में निमित्त है । कहा भी है तथैव सर्वभावानां स्वयं वृत्तिन युज्यते । दृष्टेष्टबाधनात्सर्वादीनामिति विचितितम् ॥ ५॥२२।१३ ॥ (श्लोकवातिक) यहाँ किसी का यह कटाक्ष करना युक्त नहीं है कि जिसप्रकार काल स्वयं अपनी वर्तना का प्रयोजकहेत है, उसीप्रकार सम्पूर्ण पदार्थों की स्वयमेव वर्तना हो जायगी, कारण कि घट-पटादि सम्पूर्ण पदार्थों को स्वयं वर्तना का प्रयोजकहेतुपना मानने पर प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाणों करके बाधा आती है। प्रदीप का स्वपरोद्योतन स्वभाव है, घट का नहीं। विभावपरिणमन में कालद्रव्य के अतिरिक्त अन्यद्रव्य भी कारण पड़ते हैं। कार्य की उत्पत्ति एक कारण से नहीं होती है, किन्तु अनेककारणों से होती है। 'कार्यस्यानेकोपकरणसाध्यत्वात् तत्सिद्धः॥३१॥ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्तिप्रतिगृहीताभ्यन्तरसामर्थ्यः बाह्यकुलालदण्डचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्षःघट पर्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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