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________________ १२७८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : कम्माणं मझगयं जीवं, जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो सुद्धणओ खलु, कम्मोवाहि णि रवेक्खो ॥१८॥ [ नयचक्र ] कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिकनय की अपेक्षा जीवद्रव्य शुद्ध है जैसे संसारीजीव सिद्धसमान शुद्धप्रात्मा है। कर्मों के बीच में पड़े हुए जीव को सिद्धसमान शुद्ध ग्रहण करने वाला कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धनय है । वृहद्वव्यसंग्रह गाथा १३ में भी "सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इन शब्दों द्वारा यह कहा गया है, शुद्धनय ( शुद्धद्रव्याथिकनय ) की अपेक्षा सब जीव शुद्ध हैं। यद्यपि शुद्धद्रव्याथिकनय की दृष्टि से कर्मोपाधि को गौण करके संसारीजीवों को भले ही सिद्धसमान शुद्ध कह दिया जावे तथापि जबतक संसारीजीव कर्मों से बँधा हुआ है तबतक तो कर्मोपाधिसापेक्षप्रशुद्धद्रव्याथिकनय की अपेक्षा संसारीजीव अशुद्ध है, क्योंकि उसके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्यरूप शुद्धस्वभाव का प्रभाव है तथा प्रचक्षु आदि तीन दर्शन, मति आदि चार ज्ञान, क्षायोपशमिक वीर्य, इन्द्रियसुख ( सुखाभास ) का सद्भाव है। यदि संसारीजीव को सिद्धसमान सर्वथा शुद्ध मान लिया जाय तो 'संसारिणो मुक्ताश्च' यह सूत्र तथा संसारिणश्च मुक्ताश्च जीवास्तु द्विविधाः स्मृताः' श्री अमृतचन्द्राचार्य के ये वाक्य व्यर्थ हो जायेंगे। "संसारो विद्यते येषां ते संसारिणः। मुक्ताः संसारनिवृत्ता इत्यर्थः।" जिनके पंचप्रकार परिवर्तनरूप संसार विद्यमान है वे जीव संसारी हैं और जो संसार से निवृत्त हो गये हैं अर्थात् अष्टकर्मों का क्षयकरके सिद्ध हो गये हैं वे मुक्त जीव हैं । इसप्रकार संसारीजीव और मुक्तजीव में महान् अन्तर है । संसारीजीव भी पंचमहाव्रत, पंचसमिति और तीनगुप्ति इस तेरहप्रकार के चारित्र द्वारा कर्मों का क्षय करके सिद्धसमान शुद्ध हो सकता है । वर्तमान में तो संसारीजीव शुद्ध नहीं है । यदि संसारीजीव को वर्तमान में भी शुद्ध मान लिया जाय तो मोक्षमार्ग का उपदेश निरर्थक हो जायगा। द्रव्य जिससमय जिसपर्यायरूप परिणमन करता है उससमय वह द्रव्य उसपर्याय से तन्मय हो जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्त । तम्हा धम्मपरिणदो आदा, धम्मो मुण्यव्वो ॥८॥ जीवो परिणमदि जदा सुहेण, असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धण तदा सुद्धो हवदि, हि परिणामसम्भावो ॥ ९॥ द्रव्य जिसपर्यायरूप परिणमन करता है उसीसमय वह द्रव्य उसपर्याय के साथ तन्मय हो जाता है। इसलिये धर्मपर्यायरूप परिणमन करता हुआ आत्मा धर्मरूप हो जाता है । परिणमन स्वभावधारी यह जीव जब शुभभाव से अथवा अशुभभाव से परिणमन करता है तब शुभ या अशुभ हो जाता है और जब शुद्धभाव से परिणमन करता है तब निश्चय से शुद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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