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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२७५ थी। उस द्वादशांग के दृष्टिवादनामक बारहवें अंग में इस 'नियति' को एकान्तमिथ्यात्व कहा है। जिनको सर्वज्ञवाणी पर श्रद्धा नहीं है अर्थात् सर्वज्ञ पर श्रद्धा नहीं है वे इस मत को मानने लगे हैं। -जै. ग. 12-11-64/IX-X/र. ला. जैन, मेरठ कथंचित् कर्मों ने जीव को रोका है शंका-क्या कर्मों ने जीव को नहीं रोका, किन्तु जीव अपने विपरीत पुरुषार्थ से रुका ? समाधान-विपरीत पुरुषार्थ में कारण क्या केवल जीव ही है या जीव के अतिरिक्त अन्य कोई भी कारण है ? यदि केवल जीव ही कारण होता तो सिद्धों में भी विपरीतपुरुषार्थ होना चाहिये था, क्योंकि कारण के होनेपर कार्य की उत्पत्ति अवश्य होती है । यदि कारण के होने पर भी कार्य की उत्पत्ति न हो तो कार्य की सर्वथा अनुत्पत्ति का प्रसंग आ जायेगा, किन्तु सिद्धों में विपरीतपुरुषार्थ नहीं पाया जाता। अतः सिद्ध हुआ कि मात्र जीव ही विपरीतपुरुषार्थ का कारण नहीं है, किन्तु जीव के अतिरिक्त अन्य द्रव्य भी विपरीतपुरुषार्थ में कारण है, जिसका अभाव होने पर सिद्धों में विपरीतपुरुषार्थ नहीं होता। कहा भी है-'यदि एकान्त से ऐसा माना जाय कि जीव स्वयं क्रोधादिरूप परिणमन कर जाता है तो यह दोष होगा कि उदय में प्राप्त द्रव्य क्रोध के निमित्त के बिना भी यह जीव भावक्रोधादिरूप ( विपरीत पुरुषार्थ रूप ) परिणमन कर जावे, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ दूसरे की अपेक्षा नहीं रखतीं । ऐसा होने पर मुक्तात्मा सिद्धजीव भी द्रव्यकर्म के उदय न होने पर भी क्रोधादिरूप ( विकारीपरिणतिरूप ) प्राप्त हो जावेंगे । यह बात मानी नहीं जा सकती, आगम से विरुद्ध ही है।' ( स. सा. गा. १२१-१२५ श्री जयसेनाचार्य की टीका ) । यह कथन उपचार से नहीं है, किन्तु वास्तविक कथन है, क्योंकि वस्तुस्वरूप ही ऐसा है। जीव में विपरीतपुरुषार्थ का कारण भी कर्मोदय है। कर्मोदय के ( मोहनीयकर्मोदय ) होने पर ही विपरीत पुरुषार्थ पाया जाता है और मोहनीयकर्मोदय के अभाव में विपरीतपुरुषार्थ नहीं पाया जाता। कहा भी है-जेणविणा जं णियमेण गोवलम्भवे तं तस्स कज्जमियरं 'च कारणमिदि ।' अर्थात्-जिसके बिना जो नियम से नहीं पाया जाता है वह उसका कार्य व दूसरा कारण होता है, ( ष. ख. पु. १२ पृ. २८८ ) 'यद्यस्मिन् सत्येवभवति नासति तसस्य कारणमिति न्यायात् ।' अर्थात्-जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके न होने पर नहीं होता वह उसका कारण होता है । ऐसा न्याय है । ( ष. ख. पु. १२ पृ. २८९ ) । अतः विपरीतपुरुषार्थ का कारण कर्मोदय है। जिन जीवों के मोहनीयकर्म का अभाव हो जाने के कारण विपरीतपुरुषार्थ का भी अभाव' हो ऐसे श्री अरहंत भगवान भी ८ वर्ष कम एककोटीपूर्व तक रुके रहते हैं इससे ज्ञात होता है कि रुकने में कारण केवल विपरीतपुरुषार्थ नहीं है, किन्तु कर्मोदय भी कारण है अन्यथा तेरहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में ही मोक्ष हो जानी चाहिये थी। न्यायशास्त्र द्वारा कार्यकारणभाव को भलीभाँति समझकर उपर्युक्त कथन ठीक-ठीक समझ में प्रा सकता है। -जै. सं. 19-12-57/V/ रतनकुमार जैन मात्मा मौर इन्द्रियों में कथंचित् एकत्व कथंचित् अनेकत्व शंका-आत्मा और इन्द्रियों में एकत्व है या अन्यत्व ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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