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________________ १२७२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी पं. का. गा. २७ व ९७ को टीका में तथा समयसार में शक्तियों के कथन में बीसवीं शक्ति में संसारावस्था में प्रात्मा को कथंचित् मूर्तिक स्वीकार किया है। अतः उपर्युक्त आगम प्रमाणों से यह सिद्ध है कि प्रात्मा कर्मसम्बन्ध के कारण कथंचित् मूर्तिक है अतः मूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्म से बन्ध होना सम्भव है । -जं. ग. 6-6-63/Page/IX/ प्रकाशचन्द्र (१) अनेकान्त का स्वरूप एवं उदाहरण [ कथंचित् प्रात्मा चेतन है, कथंचित् प्रचेतन ] (२) "नियति" एकान्त मिथ्यात्व है शंका-अनेकान्त किसे कहते हैं ? आगमानुसार अनेकान्त का लक्षण क्या है ? अस्ति-नास्ति ये दो भंग अनेकान्त के करते हैं तब उनका क्या अर्थ होता है ? आत्मधर्म मार्च १९६४ के अङ्क में ऐसा दिया है कि स्व-स्वरूप की अस्ति और विरुद्ध स्वभाव की नास्ति ऐसा अनेकान्तस्वरूप पदार्थ होता है । यह कथन आगम सम्मत है या नहीं? 'मोक्षमार्गप्रकाशक' के अनुसार भी कुछ ऐसा ही लगता है कि 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' ऐसा अनेकान्त का स्वरूप नहीं है, क्योंकि यह तो भ्रम है। 'ऐसे ही है, अन्य नहीं है' अनेकान्त का ऐसा स्वरूप कई जन मानते हैं । स्व-स्वरूप से अस्ति पररूप से नास्ति ऐसा मानने पर भी प्रतिपक्षपना प्रगट नहीं होता। तब अस्ति-नास्ति में प्रतिपक्षपना कैसे सिद्ध होता है ? समाधान-'अनेकान्त' दो शब्दों से मिलकर बना है, अनेक + अन्त । 'अनेक' का अर्थ 'एक से अधिक' . है। 'अन्त' का अर्थ 'धर्म' है। 'अनेकान्त' का अर्थ 'अनेक धर्मात्मक' है । यहाँ अनेक धर्म से परस्पर प्रतिपक्षी दो धर्म लिये गये हैं। जैसे 'अस्तित्व' का प्रतिपक्षी 'नास्तित्व', नित्यत्व का प्रतिपक्षी अनित्यत्व, अनेक का प्रतिपक्षी एक, भेद का प्रतिपक्षी अभेद, काल का प्रतिपक्षी अकाल, नियति ( क्रमबद्धपर्याय ) का प्रतिपक्षी अनियति (अक्रमबद्धपर्याय, क्रमाबद्धपर्याय ), तत् का प्रतिपक्षी अतत् इत्यादि । ये सब धर्म अपेक्षा भेद से प्रत्येकवस्तु में अवश्य पाये जाते हैं । इसलिये प्रत्येक वस्तु को अनेकान्त कहा जाता है । प्रत्येकवस्तु में अनेकधर्म तो प्रायः सभी मतवाले मानते हैं, किन्तु उसको अनेकान्त नहीं कहते । परस्पर दो विरोधी धर्मों का एक वस्तू में पाया जाना अनेकान्त है। श्री अमृतचन्द्र ने भी समयसार की टीका में कहा है "एकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकांतः।" अर्थ-एकवस्तु में वस्तुत्व की उपजानेवाली परस्पर-विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना माने. कान्त है। प्रत्येकवस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। सामान्य और विशेष दोनों परस्पर विरोधीधर्म हैं। अतः वस्तु को जाननेवाले के क्रमशः सामान्य और विशेष को जाननेवाली दो आँखें ( नय ) हैं द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । इनमें से पर्यायाथिकचक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र द्रव्यार्थिकचक्षु के द्वारा देखा जाता है तो मात्र एक प्रात्मा ही दृष्टिगोचर होता है । नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देवादिपर्याय ( विशेष ) दृष्टिगोचर नहीं होते अर्थात द्रव्याथिकनय की अपेक्षा उस जीवद्रव्य में नारक, तिर्यच, मनुष्य, देवपर्यायें नहीं हैं, किन्तु पर्यायार्थिकनय की दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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