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________________ १२६० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : रूप है, जो वस्तु नित्यस्वरूप है वही वस्तु अनित्यस्वरूप है', इसप्रकार एकवस्तु में वस्तुपने का निष्पादन करनेवाली परस्पर दो विरुद्ध शक्ति का प्रकाशन 'अनेकान्त' है।" श्री समयसार ग्रन्थ में दी हुई अनेकान्त की व्याख्या अनुसार 'जो वस्तु नित्यस्वरूप है वही वस्तु अनित्यस्वरूप है अर्थात् वस्तु नित्य भी है अनित्य भी है ।' ऐसा कहना होगा। 'वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं' इसमें तो मात्र 'नित्य' धर्म को तो स्वीकार किया गया है और उसके विरोधीधर्म 'अनित्य' का निषेध करने से एकान्तमिथ्यात्व का दोष प्रा जाता है। 'वस्तु नित्य है' इस वाक्य में वस्तु के 'नित्य' धर्म का कथन किया गया है, 'अस्ति' धर्म का कथन नहीं किया गया । अनेकान्त के लिये 'नित्य' धर्म के विरोधी 'अनित्य' धर्म को स्वीकार करना ही होगा। वस्तु स्याद्नित्य है. स्यादग्रनित्य है, स्यादनित्यानित्य है, स्याद्वक्तव्य है, स्यानित्यावक्तव्य है, स्याद् नित्यानित्यवक्तव्य है, स्यादनित्यानित्यप्रवक्तव्य है, इसप्रकार 'नित्य' धर्म की अपेक्षा स्याद्वाद सप्तभंगी बन जाती है। .... 'वस्तु अस्ति है' इस वाक्य में 'अस्ति' धर्म की विवक्षा है। 'अस्ति' का विरोधी 'नास्ति' है। अनेकान्त के लिये 'वस्त अस्ति भी है नास्ति भी है', ऐसा स्वीकार करना होगा। अस्तिधर्म की अपेक्षा से भी सप्तभंगी बन जाती है। प्रत्येकवस्तु में अनन्तधर्म हैं और प्रत्येकधर्म अपने विरोधीधर्म को लिये हुए वस्तु में रहता है। ऐसा अनेकान्तात्मक वस्तु स्वभाव है जो जैनधर्म का मूल सिद्धांत है। ___ वस्तुस्वरूप सर्वथा अनेकान्तात्मक हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि 'अनेकांत' भी 'अनेकांतरूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और अर्पितनय की अपेक्षा एकांतरूप है। (ज.ध. पु. १ पृ. २०७ ) श्री जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की टीका के अन्त में भी कहा है-'परस्पर सापेक्षानेकनयः प्रमीयमाणं व्यवह्रियमाणं क्रमेण मेचकस्वभाव विवक्षितकधर्मव्यापकत्वादेकस्वभावं भवति । तदेव जीवद्रव्यं प्रमाणेन प्रमीयमाणं मेचकस्वभावानामनेकधर्माणां यगपदव्यापकचित्र पटवदनेकस्वभावं भवति ।' अर्थात्-परस्पर सापेक्षनयों की अपेक्षा क्रम से विवक्षित एक-एक धर्म को धारण करने से एकस्वभाववाला है और प्रमाण से युगपदनेकधर्म धारण करने से अनेक स्वभाववाला है। इसप्रकार 'अनेकान्त' में एकान्त का दोष नहीं पाता। यदि विवक्षितनय अपने विरोधीनय की अपेक्षा रखता है, भले ही वह विरोधीनय गौण हो, तो वह सुनय है। यदि वह नय परस्पर सापेक्ष नहीं है तो वह कुनय है। सुनय का विषय सम्यगेकान्त है, क्योंकि वह अपने विरुद्धधर्म की अपेक्षा रखता है। बिना अपेक्षा के सर्वथा एकान्त कहना सम्यगेकान्त न होकर मिथ्याएकान्त है। कहा भी है-'सम्यगेकांतो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपितार्थंकदेशादेशः। एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरण-प्रवणप्रणिधिमिथ्यकान्तः।' ( रा. वा. अ. १ सू. ६ वा. ६) शंका-क्या व्यवहारनय असत्यार्थ है ? समाधान-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों ही नय अपने-अपने विषयभूत एकधर्म की मुख्यता से वस्तु का बोध अर्थात् ज्ञान कराते हैं। कहा भी है-'प्रमाणनयरधिगमः ।' (त. सू.प्र. अ. सू. ६ ) 'जिसप्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है उसीप्रकार नयवाक्यों से भी वस्तु का बोध होता है ।' ( ज.ध. पु. १ पृ. २०९ )। सभी नय अपने-अपने विषय का कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों का निराकरण करने में मूढ़ हैं अतः अनेकान्त के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा और यह नय झूठा है' इसप्रकार का विभाग नहीं करते। (ज.ध. पु. १ पृ. २५७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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