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________________ जैन न्याय अनेकान्त और स्याद्वाद अनेकान्त का स्वरूप एवं नियतिवाद शंका-अनेकान्त में 'अनेक' का अर्थ 'बहुत' और 'अन्त' का अर्थ धर्म है। जो वस्तु में अनेकधर्म स्वीकार करता है वह सम्यक्अनेकांत दृष्टिवाला है और जो अपनी इच्छानुसार एक या दो धर्मों को स्वीकार करता है अर्थात् वस्तु में बहुतधर्मों को स्वीकार नहीं करता, वह एकान्तमिथ्यादृष्टि है। ऐसा ही गोम्मटसार कर्मकांड में एकान्तमिथ्यात्व के ३६३ भेदों को दिखाते हुए कहा है जो (१) स्वभाववाद (२) आत्मवाद (३) ईश्वरवाद (४) कालवाद (५) संयोगवाद (६) पुरुषार्थवाद (७) नियतिवाद (८) देववाद; इन आठवादों में से अपनी रुचि के अनुसार एक या दो वादों को तो स्वीकार करे और अन्य का निषेध करे तो वह एकान्तमिथ्यादृष्टि है। यदि ऐसा न माना जावे तो जैनागम के सभी तत्त्वों को मिथ्यात्व का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि 'गोम्मटसार' में उक्तस्थल पर मात्र 'नियति' को नहीं, किन्तु 'स्वभाव' 'पुरुषार्थ' सप्तभंग' 'नवपदार्थ' 'साततत्त्व' सभी को मिथ्यात्व कहा है। देखो ब्र० जिनेन्द्रकुमार का लेख १९-७-६२ का जैनसन्देश । 'अनेकान्त' में कोई भी ऐसा शब्द नहीं जिसका अर्थ "विरोधी' हो सके। फिर दो विरोधी धर्मों को अनेकान्त कैसे कहते हो ? 'सत्य' तो एक ही होता है। दो हो ही नहीं सकते। ऐसा भी है और ऐसा भी; इसप्रकार वस्तु-स्वरूप है ही नहीं। जैसे वस्तु 'नित्य' भी है 'अनित्य' भी है, ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है। वह तो संशयवादी है। किन्तु वस्तु नित्य है, अनित्य नहीं है, ऐसा वस्तुस्वरूप है और यही अनेकान्त है। समाधान- यहाँ पर 'अनेकान्त' पद का शब्दार्थ नहीं ग्रहण करना चाहिये, किन्तु ग्रागम में जो अर्थ प्राचीन महानाचार्यों ने किया है वह अर्थ ग्रहण करना चाहिये। श्री समयसार के परिशिष्ट में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है 'स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करनेवाला अहंत सर्वज्ञ का एक अस्खलित शासन है। वह सर्ववस्तु अनेकान्तात्मक है, इसप्रकार उपदेश करता है, क्योंकि समस्त वस्तु अनेकान्त स्वभाववाली हैं। अनेकान्त का ऐसा स्वरूप है, जो वस्तु तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है । इसप्रकार एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है।' प्रमाणदष्टि से द्रव्य अनेकांतात्मक जात्यन्तर को प्राप्त एकरूप है ज.ध. पु. १ पृ. ५५ ) । द्रव्य न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है, किन्तु जात्यन्तररूप नित्यानित्यात्मक है। सर्वथा नित्यवाद के पक्ष में जीव का सूख और दुःख से सम्बन्ध नहीं बन सकता । तथा सर्वथा अनित्यवाद के पक्ष में भी सुख और दुःख की कल्पना नहीं बन सकती' । चूकि वस्तु को सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य मानने पर बन्ध आदि के कारणरूप योग और १. सुहदुक्ख-संपनोओ संपवई ण णित्यवारपक्वम्मि । एयंतुच्छेदम्मि वि सुहदुक्खवियप्पणमनुत्तं ।। (ज.ध. पु. १ पृ. २४९ तथा स. त ११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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