SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२५४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : शीतलद्रव्य निक्षेपे कृते सति शीतलगुणवृद्धिर्भवति तथा निश्चयव्यवहाररत्नत्रयगुणाधिकसंसर्गावगुणवृद्धिर्भवतीति सूत्रार्थः।" जिसप्रकार अग्नि के निमित्त से जल का शीतलगुण नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार लौकिकजन के संसर्ग से संयमी का संयमगुण नष्ट हो जाता है। यदि उसी जल को शीतल भाजन में मकान के शीतल कौने में रख दिया जाय तो उस जलका शीतलगुण ज्यों का स्यों बना रहता है। यदि उसी जल को मकान के कोने में कपूर आदि शीतल पदार्थ निक्षिप्त करके रख दिया जाये तो जल के शीतल गुण में वृद्धि हो जायगी। यहाँ पर यह बतलाया गया है कि एक ही जल में उष्णरूप, ज्यों का त्यों शीतलरूप तथा अधिक शीतलरूप परिणमन करने की शक्ति है। यह निश्चित नहीं कि इन तीनपर्यायों में से कौनसी पर्यायरूप जल का प्रागामी परिणमन होगा। जिसप्रकार के पदार्थ का संसर्ग हो जायगा वैसा ही जल का भागामी परिणमन हो जायगा । इन दोनों दृष्टान्तों से स्पष्ट हो जाता है कि बीज व जलादि पदार्थों की प्रागामी पर्याय निश्चित नहीं है, जैसा कारण मिलेगा वैसी पर्याय उत्पन्न हो जायगी, ऐसा जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है जिसको श्री कुन्वन्दाचार्य ने प्रवचनसार गाया २५५ व २७० में लिपिबद्ध किया है। इतना ही नहीं, यदि आगामी शक्तिरूप पर्याय के अनकल बाह्यसामग्री न मिले तो वह शक्तिरूप पर्याय उत्पन्न नहीं होगी। श्री अकलंकदेव ने कहा भी है-"स्वपर-प्रत्ययौ उत्पाद विगमो येषां ते स्वपरप्रत्ययोत्पावविगमाः। के पुनस्ते ? पर्यायाः । द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणो बाह्यः प्रत्ययः परः प्रत्ययः तस्मिन् सत्यपि स्वयमतपरिणामोऽयों न पर्यायान्तरम् आस्कन्दति इति । तत्सगर्थः स्वश्च प्रत्ययः। तावुभौ संभूय भावानाम् उत्पादविगमयोहंतु भवतः नान्यतरापाये कुशूलस्थमाषा-पच्यमानोदकस्थघोटकमाषवत्।" स्व और पर कारणों से होनेवाली उत्पाद और व्ययरूप पर्याय हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप बाह्यप्रत्यय हैं अर्थात् परकारण हैं । तथा उसरूप परिणमन करने की अपनी शक्ति स्वकारण है। बाह्य कारणों के रहने पर भी यदि उस पर्याय रूप परिणमन करने की शक्ति न हो तो वह पर्याय उत्पन्न नहीं होगी। यदि उस पर्यायरूप परिणमन करने की अपने में शक्ति हो, किन्तु उस पर्याय के अनुकूल बाह्यद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न हो तो वह पर्याय उत्पन्न नहीं होगी। स्व और पर दोनों कारणों के मिलने पर ही पर्याय उत्पन्न होती है, किसी एक कारण के अभाव में पर्याय उत्पन्न नहीं होती। जैसे पकने की शक्ति रखनेवाला उड़द यदि बोरे में पड़ा हुआ है तो शक्ति होते हुए भी पकनेरूप पर्याय उत्पन्न नहीं होगी, क्योंकि बटलोई प्रादि बाह्य (पर) कारणों का अभाव है। न पकनेवाले उडद को यदि बटलोई में उबलते हुए पानी में भी डाल दिया जाय तो भी पकनेरूप पर्याय उत्पन्न नहीं होगी, कोकि स्वशक्ति का अभाव है इससे स्पष्ट है कि शक्तिरूप पर्याय का उत्पाद होना निश्चित नहीं है। जब केवली भगवान ने यह उपदेश दिया है कि द्रव्य में बागामी पर्याय असत-अविद्यमान, प्रागभाव और अनिश्चित रूप से है, तब यह कहना कि केवलोभगवान आगामी पर्याय को सत्, विद्यमान, सदभाव व निश्चित रूप से जानते हैं। क्या केवली प्रवर्णवाद नहीं है ? केवलीभगवान जिसरूप से पदार्थ, पर्याय, गुण को जानते हैं, क्या उसरूप से उपदेश नहीं देते अर्थात् क्या केवली अन्यथावादी हैं? _केवलीभगवान तीनोंकाल की पर्यायों को जानते हैं, किन्तु जो पर्याय जिसरूप से है, उसरूप से जानते हैं और उसीरूप से उसका उपदेश दिया है। जो पर्याय सद्रूप विद्यमान है उनको उसरूप से जानते हैं और उसीरूप से उपदेश दिया है। जो पर्याय असदुरूप हैं अविद्यमान हैं, प्रागभाव, प्रध्वंसाभावरूप हैं उनको असत्, मविद्यमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy