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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व 1 [ १२४९ पांचवां विशेषण है - " वे सद्भुत और प्रसद्भूत पर्यायें विशेष लक्षण को प्रर्थात् भिन्न-भिन्न लक्षण को धारण किये हुए हैं।” अर्थात् वर्तमानपर्याय सद्भूत होने से व्यक्तलक्षण को धारण किये हुए है। भूत व भाविपर्यायें प्रसद्भूत होने से शक्तिलक्षण को धारण किये हुए हैं । छठा विशेषण है - " वर्तमान पर्यायवत् एकसमय में ही ज्ञानमन्दिर में स्थिति को प्राप्त होती है ।" जिसप्रकार इन्द्रियादि की सहायता बिना सद्भूत वर्तमानपर्याय ज्ञानमन्दिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं, उसीप्रकार इन्द्रियादि की सहायता बिना भूत और भाविअसद्भूतपर्यायें भी, जो कि वर्तमानपर्याय में भूतशक्तिरूप और भविष्यत् शक्तिरूप से पड़ी हुई हैं, वर्तमानपर्याय के साथ-साथ ज्ञानमन्दिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं । 'इव' शब्द से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सद्भूतपर्याय असद्भूत नहीं होजाती या प्रसद्भूतपर्यायें सद्भूत नहीं हो जाती हैं । जो पर्याय जिसरूप है वह उसीरूप रहती है और वे पर्यायें अपने-अपने स्वरूप से ही ज्ञानमन्दिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं अन्यस्वरूप से नहीं । सद्भूत और असद्भूतपर्यायों का ज्ञानमन्दिर में स्थिति को प्राप्त होना अयुक्त नहीं है, उसके लिये श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तीन दृष्टान्त दिये हैं (१) खद्मस्थ का ज्ञान, (२) चित्रपट (३) आलेख्याकार | (१) छद्मस्थ अपने स्मृतिरूप परोक्षज्ञान के द्वारा असद्भूत भूतपर्यायों के प्राकारों का चितवन कर सकता है अथवा अनुमान परोक्षज्ञान के द्वारा भूत तथा भाविपर्यायों के श्राकार चितवन कर सकता है । क्या केवलज्ञान भी इसीप्रकार चितवन द्वारा भूत और भावि प्रसद्भूतपर्यायों को जानता है ? केवलज्ञान निर्विकल्प और सकलप्रत्यक्ष है । द्यस्थ का मति श्रुतज्ञान सविकल्प और परोक्ष है । कहा भी है "सविकल्पं मानस तच्चतुविधम् मतिश्र तावधिमनः पर्ययरूपम् । निर्विकल्पं मनोरहितं केवलज्ञानमिति प्रमाणस्य व्युत्पत्तिः ।" [ आलापपद्धति ] मति श्रुत, अवधि, मनापर्यंय में चारों ज्ञान सविकल्प हैं और केवल ज्ञान निर्विकल्प है । जिसप्रकार केवलज्ञानियों के सुख को समझाने के लिये यह कहा जाता है कि समस्त छद्यस्थजीवों के तीन काल के सुख को एकत्रित कर लिया जाय, वह सुख जितना हो उससे भी अनन्तगुणा सुख एकक्षण में केवलज्ञानी को है । छद्मस्थ का सुख इन्द्रियजनित है और केवलज्ञानियों का सुख अन्तीन्द्रिय है । दोनों सुखों की जाति भिन्न है । इन्द्रियजनित वास्तव में सुख नहीं सुखाभास है । इसीप्रकार छद्मस्थ का ज्ञान क्षायोपशमिक है सविकल्प है, किन्तु केवलज्ञान क्षायिक है और निर्विकल्प है। दोनों की जाति भिन्न है । क्षायिक-निर्विकल्पकेवलज्ञान भूत धोर भावि अद्भूत पर्यायों को जानता है, इसको समझने के लिये सविकल्प क्षायोपशमिकज्ञान का दृष्टान्त दिया है। दोनों के जानने में महान् अन्तर है । दूसरा दृष्टान्त चित्रपट का दिया गया है। चित्रपट मूर्तीक है, जड़ है उसपर चित्र बन सकता है । क्या अमूर्तिक चैतन्यमयी ज्ञान पर भी चित्र अर्थात् ज्ञेय का आकार बनता है ? मूलाराधना में निम्नप्रकार कहा है "विषयाकारपरिणतिरात्मनो यदि स्याद्र परसगन्धस्पर्शा द्यात्मकतास्यात्तथा च 'अरसमरूवमगंध अभ्यस्त चेवणागुणमसछ ।' इत्यनेन विरोधः । विरुद्धश्च नीलपीताविपरिणामो नैकत्र युज्यते । एकदा आकारद्वय संवेदनप्रसंगश्च । बाह्यस्यैकनीला विविज्ञानगतमपरं ।" यदि ज्ञान विषय (ज्ञेय ) के आकार से परिणमेगा तो वह स्पर्श, रस, गंध, वर्णात्मक होगा, ऐसी अवस्था हो जाने पर, समयसार में जो यह कहा गया है कि 'प्रात्मा भरस है, प्ररूप है, प्रगंध है, प्रस्पर्श है, प्रमूर्तिक है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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