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________________ १२४६ ) [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । उसीप्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत्शक्ति रूप से भी सत्त्व नहीं पाया जाता है। अर्थात जैसे वर्तमानपदार्थ में उसकी अतीतपर्यायें, जो कि पहले हो चुकी हैं, भूत शक्तिरूप विद्यमान हैं और अनागतपर्यायें, जो कि प्रागे होनेवाली हैं. भविष्यशक्तिरूप से विद्यमान हैं, उसतरह खरविषाण-गधे के सींग यदि पहले कभी हो चूका होता तो भूत शक्तिरूपसे उसकी सत्ता किसी पदार्थ में विद्यमान होती, अथवा वह आगे होनेवाला होता तो भविष्यत्शक्तिरूप से उसकी सत्ता किसी पदार्थ में विद्यमान रहती, किन्तु खरविषाण न तो कभी हआ है और न कभी होगा। अत: जसमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रश्न-जबकि अर्थ में भूतपर्याय और भविष्यतपर्यायें भी शक्ति रूपसे विद्यमान रहती हैं तो केवल वर्तमानपर्यायों को ही अर्थ क्यों कहा जाता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि 'जो जाना जाता है उसे प्रथं कहते हैं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमानपर्यायों में ही अर्थपना पाया जाता है । प्रश्न-यह व्युत्पत्यर्थ अनागत और अतीत पर्यायों में भी समान है । अर्थात् जिसप्रकार ऊपर कही गई व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमानपर्यायों में अर्थपना पाया जाता है उसीप्रकार अनागत और अतीतपर्यायों में भी अर्थपना सम्भव है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि अनागत और अतीतपर्यायों का ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहणपूर्वक होता है। अर्थात् अतीत और अनागत-पर्यायें भूतशक्ति और भविष्यत्-शक्तिरूपसे वर्तमान अर्थ में ही विद्यमान रहती हैं । अतः उनका ग्रहण वर्तमानअर्थ के ग्रहण-पूर्वक ही हो सकता है, इसलिये उन्हें अर्थ यह संज्ञा नहीं दी जा सकती है। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षासे रहित है, इसलिये भी वह केवल अर्थात असहाय है। इसप्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान समझना चाहिये।" "तद्ग्रहणस्य वर्तमानार्थग्रहण पूर्वकत्वात् ।" अर्थात् अनागत और प्रतीतपर्यायों का ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहणपूर्वक होता है । इस वाक्य में पूर्वका अर्थ निमित्त या कारण है, क्योंकि वर्तमानपर्याय बिना भूत शक्तिरूप भृतपर्यायों का और भाविशक्तिरूप भविष्यत्पर्यायों का ग्रहण नहीं हो सकता है । कहा भी है "पूर्व निमित्तं कारणमित्यनर्थान्तरम् ।" [ स० सि० १।२० ] "मविपुग्वं सुदं, मदिणाणेण विणा सुदणाशुप्पत्तीए अवलंभावो ।" [ ज० ध० पु० १ पृ. २४ ] इनका भाव ऊपर कहा जा चुका है । भूत भौर भविष्यत्पर्यायें अविद्यमान हैं, ऐसा श्री स्वामिकार्तिकेय ने भी कहा है जवि दवे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिया संति । ता उप्पत्ती विहला पडिपिहिदे देवदत्ते ध्व ॥२४३ ।। संस्कृत टीका-अथ सांख्यादयः एवं वदन्ति । द्रव्ये जीवादिपदार्थ सर्वे पर्यायाः तिरोहिता! आच्छादिताः विद्यमानाः सन्ति, त एव जायन्ते उत्पद्यन्ते, सर्व सर्वत्र विद्यते, इति तन्मतं समुत्पाध दूषयति । द्रव्ये जीवपुद्गलादिवास्तनि पर्यायानरनारकाविबुध्यादयः स्कन्धादयः परिणामा विद्यमानाः सहरूपाः अस्तिरूपा: तिरोहिता: अन्तीना अप्रावुभूताः सन्ति विद्यन्ते यदि चेत् तहि पर्यायाणामुत्पत्तिः उत्पावः निष्पत्तिः विफला निष्फला निरर्थका भवति । पटपिहिते देवदत्ते इव, यथा वस्त्राच्छादिते देववत्ते तस्य देवदत्तस्य वस्त्रे उत्पत्तिनं घटते यथा तथा सर्वे नरनारकबुद्ध्यादयः पदार्थाः प्रकृती लीनाः तहि अंगुल्यने हस्तिशतयूथं कथं न जायते इति दूषणसहभायात अविद्यमानाः पर्यायाः जायन्ते ॥ २४३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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