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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२२५ समाधान-शंकाकार ने त्याग न करने के लिये जो हेतु दिया है यद्यपि वह स्थूलदृष्टि से उचित प्रतीत होता है। किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर उसमें कोई सार नहीं है । शंकाकार का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया जावे तो चरणानुयोग का उपदेश निरर्थक हो जायगा । चरणानुयोग का ही नहीं, किन्तु द्रव्यानयोग का उपदेश भी अकिंचित् कर हो जायगा, क्योंकि जिस जीव को जिससमय जिस स्थानपर सम्यग्दर्शन होना है, उस जीव को उसोसमय उसी स्थान पर सम्यग्दर्शन अवश्य होगा उससे पूर्व या उसके पश्चात् नहीं हो सकता। पदार्थ अनेकान्तस्वरूप है । पर्यायों में भी सर्वथा एकान्त घटित नहीं होता। यदि कहा जावे कि सब ही पर्याय नाशवान हैं तो ऐसा भी एकान्त नहीं है क्योंकि पुद्गल की मेरु पर्याय अनादि-अनन्त है। सिद्ध पर्याय सादिअनन्त है इत्यादि । कहा भी है-"अनादिनित्य पर्यायाथिको यथा पुद्गलपर्यायो नित्योमेर्वादिः । सादिनित्यपर्यायाथिको यथा सिद्धपर्यायोनित्यः !' ( आलापपद्धति )। इसीप्रकार कालनय की अपेक्षा कार्य की सिद्धि समयपर निर्धारित है, जैसे आम्रफल गर्मी के दिनों के अनुसार पकता है, किन्तु अकालनय से कार्य की सिद्धि समयपर प्राधार नहीं रखती है, जैसे कृत्रिम गर्मी से ग्राम्रफल पक जाता है (प्रवचनसार )। समवसरण के प्रभाव से अथवा किसी विशेषमुनि के आगमन से भी छहों ऋतु के फल-फल एकसाथ आ जाते हैं तथा जाति बैर विरोधी जीव भी परस्पर बैर-भाव छोड़कर एक स्थान पर प्रेम भाव से बैठ जाते हैं। जिसप्रकार 'कालनय' 'अकालनय' हैं उसीप्रकार 'नियतिनय' और 'अनियतिनय' भी हैं। जैसे अग्नि के साथ उष्णता नियत है, किन्तु जल के साथ उष्णता अनियत है। जब कभी जल को अग्नि का संयोग मिलेगा तब जल उष्ण हो जावेगा; यदि अग्नि प्रादि का संयोग प्राप्त नहीं होगा तो जल उष्ण नहीं होगा, (प्रवचनसार )। ___ इसप्रकार आगमप्रमाण से जाना जाता है कि कोई पर्याय काल के अनुसार होती है कोई पर्याय अकाल में भी होजाती है। कोई पर्याय नियत है और कोई पर्याय अनियत है। यदि ऐसा न माना जावे तो 'अनादि मिध्यादष्टि जीव तीनों करण करके प्रथमोपशमसम्यक्त्व प्राप्त होने के प्रथमसमय में अनन्तसंसार को छिन्नकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र संसार का काल कर लेता है।' आगम से इस कथन की कैसे संगति बैठ सकती है? श्री पंचास्तिकाय गाथा २० की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है-'जिस प्रकार नानाप्रकार के चित्रों से चित्रित वेणु दण्ड ( बांस ) को धोने से बांस शुद्ध हो जाता है उसीप्रकार नाना सांसारिकपर्यायों से चित्रित जीव भी उन सांसारिक पर्यायों को सम्यग्दर्शनादि के द्वारा नष्ट करके शुद्ध ( सिद्ध ) हो जाता है ।'२ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी भावपाहुड़ गाथा ८२ में कहा है-'जिणधम्मो भाविभवमहणं ।' अर्थात् जिनधर्म भाविभव मंथन कहिए प्रागामी संसार का नाश करने वाला है। श्री मूलाचार अ० २ गाथा ७७ में भी कहा है-'एक्कं पंडिवमरणं विवि जावोसयाणि बहुगाणि ।' अर्थात् जाते एकहू पंडितमरण है सो बहुत जन्म के सैकंड़ेनि कू छेदे है। इन भागमप्रमाणों से भी सिद्ध है कि जीव सम्यग्दर्शन प्रादि के द्वारा आगामी संसार का नाश कर अकाल में ही सिद्ध होजाता है। यदि यह कहा जावे कि मोक्ष लो अपने नियतकाल पर ही हा क्योंकि उस जीव के प्रागामोसंसार नहीं था सो ऐसा कहना उपयुक्त आगम से विरुद्ध है। इसी बात को आचार्य अकलंकदेव ने श्री राजवातिक प्र० अ० सूत्र ३ को टीका में कहा है-'भव्यों की कर्मनिर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है । अता भव्य के मोक्ष के कालनियम की बात उचित नहीं है जो व्यक्ति मात्र ज्ञान से या चारित्र से या दो से या तीन कारणों से मोक्ष मानते हैं उनके यहाँ कालानुसार मोक्ष होगा, यह प्रश्न ही नहीं होता। यदि सबका काल ही १. 'एक्केण अणादिय-मिच्छादिष्टिणा तिण्णि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए अणंतो संसारो छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तोकदो।' (धवल पु. ५ पृ. ११, १२, १४, १५, १६) 2. 'यथा वेणुदण्डो विचित्र-चिन-प्रक्षालने कृते शुद्धो भवति तथायं जीवोपि ।' (पंचारितकाय गा 20 टीका) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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