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________________ १२२२ ] [ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार। परिवर्तन करने में असमर्थ है। किन्तु वह जीव स्वयं तो अपने कर्मों में शुभ या अशुभ परिणामों के द्वारा उत्कर्षण अपकर्षण अथवा संक्रमणरूप परिवर्तन कर सकता है । अतः गाथा ३२१-३२२ में एक भी शब्द ऐसा नहीं लिखा गया कि जैसा जिनेन्द्र ने देखा है वैसा अवश्य होगा। क्योंकि स्वामिकातिकेयाचार्य जानते थे कि ऐसा लिख देने से उस एकान्तनियति का प्रसंग आजायगा, जिस को द्वादशांग के दृष्टिवाद अंग में एकांतमिथ्यात्व कहा है। सम्यग्दर्शन परिणामों के द्वारा यह जीव अनन्तानन्त संसारपर्यायों को काटकर अर्थात् मिटाकर; अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर देता है (ध० पु०७ पृ. ११, १४, १५, पं० का० गा० २० पर श्री जयसेनाचार्यकृत टीका।') किसी भी दि० जनागम में एकान्तमिथ्यात्व का समर्थन नहीं मिलेगा। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय का मंगलाचरण करते हुए दूसरे श्लोक में कहा है कि जैनसिद्धान्तपद्धति का प्राण 'स्यात्कार' है तथा समयसार गाथा ५ को टीका में भी जिनागम 'स्यात्' पद से मुद्रित कहा है। फिर ऐसे जिनागम में सर्वथानियति ( क्रमबद्धपर्याय ) का समर्थन कैसे हो सकता है। यद्यपि परमाणु निरवयव है, क्योंकि वह भेदा नहीं जा सकता और न उससे छोटा कोई अन्य पुद्गलद्रव्य है फिर भी केवलज्ञान में प्रत्यक्षरूप से और श्रुतज्ञान में परोक्षरूप से वह परमाणु सावयवरूप से प्रतिभासित होता है. क्योंकि यदि परमाणु के उपरिम, अधस्तन भाग न हों तो परमाणु का ही प्रभाव हो जायगा । विवक्षित परमाणु को पूर्व की ओर एक अन्य-परमाणु ने स्पर्श किया, पश्चिम की अोर दूसरे अन्य परमाणु ने स्पर्श किया, उत्तर की ओर तीसरे अन्य परमाणु ने स्पर्श किया, दक्षिण की ओर चौथे अन्य परमाणु ने स्पर्श किया, ऊपर की ओर अन्य पाँचवें परमाणु ने स्पर्श किया, नीचे की ओर अन्य छठे परमाणु ने स्पर्श किया। इसप्रकार एक ही विवक्षित परमाणु के छह विभिन्न भागों को छह भिन्न-भिन्न अन्य परमाणुओं ने स्पर्श किया है। ये भाग कल्पितरूप भी नहीं हैं, क्योंकि परमाणू में ये भाग उपलब्ध होते हैं। केवलज्ञान तथा श्रतज्ञान में इन अवयवों के प्रतिभासमान होने पर भी क्या परमाणु सर्वथा सावयव होगया। यदि परमाणु को सर्वथा सावयव माना जायगा तो परमाणु को निरवयव कहनेवाले जिनागम से विरोध आवेगा। अतः परमाणु कथंचित् निरवयव और कथंचित् सावयव है और ऐसा ही केवलज्ञानी ने देखा है, क्योंकि वस्तु अनेकान्तात्मक है । (ध० पु. १४ पृ० ५६-५७ )। यद्यपि 'समय' व्यवहारकाल का सबसे छोटा अंश होने से प्रविभागी है तथापि जब पुद्गलपरमाणु तीव्र- ' गति से उस एकसमय में चौदहराजू गमन करता है तब उस पुद्गलपरमाणु के चौदहराजू के असंख्यातप्रदेशों में से प्रत्येक प्रदेश को स्पर्श करने का भिन्न-भिन्नकाल अर्थात् 'समय' के अंश, केवलज्ञान में प्रत्यक्षरूप से और श्रुतज्ञान में परोक्षरूप से प्रतिभासमान होता है। केवलज्ञान में 'समय' के विभागी प्रतिभासमान हो जाने से क्या उक्त 'समय' सर्वथा विभागी होगया। यदि 'समय' को सर्वथा विभागी माना जावेगा तो अव्यवस्था हो जायगी तथा अविभागी कहनेवाले आगम से विरोध आवेगा । प्रतः 'समय' कथंचित् अविभागी, कथंचित् सविभागी है, ऐसा मानना सम्यक् अनेकान्त है। __ इसीप्रकार पर्यायों को भी कथंचित् नियतिरूप कथंचित् अनियतिरूप मानना सम्यक् अनेकान्त है और सर्वज्ञ ने भी इसीप्रकार देखा व जाना है । रा. वा० अ० १ ० ३ की टीका में यह प्रश्न उठाया गया कि 'भव्यजीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायगा। यदि समय ( नियतकाल ) से पूर्व मोक्षप्राप्ति की संभावना हो तभी अधिगमसम्यक्त्त्व की सार्थकता १; यथा वेणुदण्डो विचित-चित्रप्रक्षालने कृते शुद्धो भवति तथा अयं जीवोपि ..." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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