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________________ १२१४ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तारा नियत मान लिया जावे तो उपदेश, संयमादि व पुरुषार्थ की निरर्थकता व अनाचार की प्रवृत्ति संभव है। भगवान की वाणी बिना इच्छा के निकलती है प्रतः उसमें किसी व्यक्ति विशेष का लक्ष्य नहीं होता। तिप०अ० ४ गाथा ८०८ व ९२६ में जो सातभवों के दिखने का कथन है, उसका अभिप्राय यह हैवापिकाजल व भामंडल में सातभव लिखे नहीं रहते, किन्तु भगवान की निकटता के कारण वापिकाजल व भामण्डल में इतना अतिशय हो जाता है कि उनके अवलोकन से अपने सात भवों के ज्ञान का क्षयोपशम हो जाता है। स्थूलरूप से सातभवों के ज्ञान का क्षयोपशम हो जाने पर भी जिसका उस क्षयोपशम की तरफ उपयोग नहीं जाता या जो सूक्ष्मरूप से जानना चाहता है वह प्रश्न कर लेता है और दिव्यध्वनि के सुनने से उसका स्वयमेव समाधान हो जाता है । भगवान के मोहनीयकर्म का प्रभाव हो जाने से वे इच्छापूर्वक किसी के प्रश्न का उत्तर नहीं देते । -जं. सं. 27-2-58/VI/ र. ला. कटारिया, केकड़ी सृष्टि को प्रादि तथा अनन्त राशि के अन्त को प्रसत्त्व के कारण केवली नहीं जानते शंका-सृष्टि अनादि है और इसका कभी अन्त नहीं होगा। मनुष्य ज्ञान को अपेक्षा से अनादि है या सर्वज्ञ-ज्ञान की अपेक्षा से भी अनादि है ? सृष्टि को आवि को सर्वज्ञ जानते हैं अथवा नहीं जानते । अनन्त का अंत सर्वज्ञ जान लेते हैं या नहीं? सर्वज्ञ के ज्ञान की अपेक्षा 'अनन्त' सान्त है या अनन्त ही है? ___ समाधान–'सृष्टि' अनादि है' इसमें शंकाकार को विवाद नहीं है, क्योंकि सृष्टि को आदि मानने में अनेक प्रश्न उठते हैं, जैसे-क्यों बनी ? किसने बनाई ? किससे बनाई ? कहाँ बनाई ? कब बनाई ? इत्यादि । इन प्रश्नों का उत्तर देने से फिर प्रश्न होते हैं-जिसने बनाई उसको किसने बनाया ? जिस पदार्थ से बनी वह पदार्थ किससे बना? इन प्रश्नों के उत्तर पर पुन: ये ही प्रश्न हो जायेंगे इसप्रकार अनवस्था दोष माजायगा। अता 'सृष्टि संततिअपेक्षा अनादि है' यह निर्विवाद सिद्ध है। केवलज्ञान सम्यग्ज्ञान है और प्रमाण है । सम्यग्ज्ञान उसको कहते हैं-जो ज्ञान पदार्थ को जैसा का तैसा जानता हो. नयन जानता हो, न अधिक जानता हो और संशय विपरीत अनध्यवसाय से रहित हो (२०० था. लो० ४२ ) अतः केवलज्ञान भी पदार्थ को संशय, विभ्रम, विमोह से रहित जैसे का तैसा जानता है। सृष्टि भी एक पदार्थ है जिसको केवलज्ञान संशय, विपरीत और अनध्यवसाय से रहित जानता है। सृष्टि अनादि है। यदि केवलज्ञानी सष्टि को आदि रूप से जान ले तो उसका ज्ञान विपरीत ज्ञान हो जायगा और केवलज्ञान में सम्यग्ज्ञान के लक्षण का अभाव होने से मिथ्याज्ञान हो जावेगा। मिथ्याज्ञान होने से अप्रमाणिक हो जायगा। बहुत से यह मानते हैं कि "केवलज्ञानी सृष्टि की प्रादि को जानता है। यदि केवलज्ञानी सृष्टि की प्रादि को न जाने तो 'सर्वज्ञता' का अभाव हो जायगा । 'सृष्टि अनादि है' ऐसा छप्रस्थों की अपेक्षा से कहा गया है, मज की अपेक्षा से तो सृष्टि सादि है।" किन्तु उसका ऐसा कहना सर्वज्ञता को नहीं स्थापित करता अपित खंडित करता है क्योंकि सष्टि को सादि मानने से अनवस्थादोष आजावेगा और सर्वज्ञ का ज्ञान विपरीत ज्ञान हो जाने से सम्यग्ज्ञान नहीं रहेगा। छद्मस्थ व सर्वज्ञ दोनों की अपेक्षा से सृष्टि अनादि है । सृष्टि का अनादिपना संतति की अपेक्षा से है । संतति की अपेक्षा सृष्टि का आदि ही नहीं है, तो सर्वज्ञ सृष्टि की आदि को कैसे जान सकते हैं ? औपचारिक अनन्त का अन्त तो सर्वज्ञ जानते हैं, क्योंकि वह राशि सान्त है। छद्मस्थ के ज्ञान का विषय न होने से और मात्र केवलज्ञान का ही विषय होने से उस सान्त राशि को भी उपचार से अनन्त कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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