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________________ ११८२ । [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार समाधान-ज्ञान को ही प्रमाण कहा है । 'मतिथ तावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे ॥ १०॥' ( मोक्षशास्त्र अध्याय १)। अर्थ-मति, श्रु त, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच ज्ञान हैं । वे पाँचों ही प्रमाण हैं। ज्ञान है सो ही प्रमाण है ( परीक्षामुख अध्याय १ सूत्र १)। ज्ञान का जो विषय उसको 'ज्ञेय' कहते हैं और प्रमाण का जो विषय उसको 'प्रमेय' कहते हैं। ज्ञान और प्रमाण में जब भेद नहीं तो उसके विषय में भी भेद कैसे हो सकता है। यहाँ पर संशय विभ्रम, विमोहरहित ज्ञान से प्रयोजन है। ( अतः ज्ञेयत्व व प्रमेयत्व में मात्र शब्द भेद है, अर्थ भेद नहीं)। -जे. सं. 22-1-59/V/ घा. ला. जैन, अलीगढ़ ( टॉक ) पर्याय-सामान्य परमाणु में शब्दरूप परिणत होने की शक्ति नहीं शंका-'जनसंदेश' में लिखा है-'अतः परमाणु में द्रध्यरूप से शब्दरूप परिणत होने की शक्ति विद्यमान है। यही द्रव्यशक्ति है ।' क्या यह कथन ठीक है ? समाधान-एकप्रदेशी परमाणु में शब्दरूप परिणत होने की शक्ति विद्यमान नहीं है, किन्तु अनन्त परमाणमों के साथ बंध को प्राप्त होकर भाषावर्गणारूप स्कन्ध में परिणत हो जाने की शक्ति है। भाषावर्गणारूप स्कन्ध में शब्दरूप परिणमन करने की शक्ति है जो बहिरंग कारणों के मिलने पर व्यक्त होती है अर्थात भाषावर्गणा शब्दरूप परिणम जाती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी लिखा है "सद्दो खंधप्पभवो" अर्थात् शब्द स्कन्धजन्य है। -f. ग. 7-2-66/IX/ र. ला. जैन, मेरठ जीव की विभावशक्ति पर्यायरूप तथा अनित्य है शंका-क्या जीव में विभावशक्ति नित्य है, क्योंकि वह अनादि है ? समाधान-जीव में जो विभावशक्ति है वह अनित्य है क्योंकि पर्यायशक्ति है, द्रव्यशक्ति नहीं है। जबतक जीव कर्म से बँधा हुआ है अर्थात् अशुद्ध अवस्था है तभी तक जीव में विभादरूप परिणमन करने की शक्ति है। द्रव्यकर्म से मुक्त हो जाने पर जब जीव की शुद्धअवस्था हो जाती है तब जीव में विभावरूप परिणमन करने की शक्ति भी नहीं रहती है। पुग्गलविवाइवेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥२१६॥ ( जीवकाण्ड ) अर्थात पगलविपाकी शरीर-नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव के कर्मों के ग्रहण करने की शक्ति योग है, अर्थात क्रियावतीशक्ति है। किन्तु शरीरनामकर्म के प्रभाव में और समस्तकर्म क्षय हो जाने से स्वाभाविक निष्क्रियत्व शक्ति व्यक्त हो जाती है । कहा भी है "सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मात्म प्रदेशनष्पंद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः ।" ( समयसार मात्मख्याति ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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