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________________ [ ११७५ समाधान - आत्मा में जो अगुरुलघुगुण है वह स्वाभाविकगुण है, किन्तु संसारावस्था में कमंपरतन्त्रजीव में - उस स्वाभाविकअगुरुलघुगुण का अभाव है । जैसा कि धवल पु० ६ में कहा है # व्यक्तित्व और कृतित्व ] "अगुरुवल अत्तं णाम जीवस्स साहावियमत्थि चे ण, संसारावस्थाए कम्मपरतंतम्मि तस्साभावा ।" [ पृ० [ ५८ ] इसका भाव ऊपर कहा जा चुका है । मुक्त ( सिद्ध ) जीवों में इस स्वाभाविक अगुरुलघुगुणका आविर्भाव होता है । जैसा कि कहा गया है - "मुक्तजीवानां कथमिति चेत् ? अनादिकमनोक मंसंबंधानां कर्मोदय कृतमगुरुलघुत्वम्, तदत्यन्तविनिवृत्तौ तु • स्वाभाविकमाविर्भवति ।" [ रा. वा. अ. ८ सूत्र ११ वार्तिक १२ टीका ] अनादिकाल से कर्म व नोकर्म से बद्ध जीवों के ( संसारी जीवों के ) कर्मोदय के द्वारा किया हुआ अगुरुलघुत्व होता है । कर्मोदय से अत्यन्त मुक्त हुए जीवों के ( सिद्धों के ) स्वाभाविक अगुरुलघुत्व आविर्भूत हो जाता है अर्थात् स्वाभाविक अगुरुलघुगुण के द्वारा अगुरुलघुत्व होने लगता है । इस अगुरुलघुगुण में छहप्रकार की वृद्धि और छह प्रकार की हानि होती है, ( १ ) अनन्तभाग- वृद्धि, (२) असंख्यात भाग- वृद्धि, (३) संख्यात भाग- वृद्धि, (४) संख्यातगुण - वृद्धि, (५) असंख्यातगुण-वृद्धि, (६) अनन्तगुण - वृद्धि । (७) प्रनन्तभाग-हानि, (८) असंख्यात भाग- हानि, ( १ ) संख्यात भाग-हानि, (१०) संख्यातगुण-हानि, (११) प्रसंख्यात गुण-हानि, (१२) अनन्तगुण-हानि । इन बारहप्रकार की वृद्धि हानि में से एकसमय में अपने नियतक्रम से एक ही प्रकार की वृद्धि या हानि होगी। एक ही समय में छहों प्रकार की वृद्धि-हानि का होना सम्भव नहीं है । छहों प्रकार की वृद्धि का नियतक्रम इसप्रकार है "हेट्ठाद्वाणपरूवणाए अनंतभागन्महियं कंवयं गंतूण असंखेज्जभागन्म हियंद्वाणं ।। २१५ ।। किं कंदयपमाणं ? अंगुल असंखेज्जदिभागो । असंखेज्जभागम्भहियं कंदयं गंतूण संखेज्जभागन्महियं द्वाणं ॥ २१६ ॥ संखेज्जभागमहियं कंडयं गंतूण संखेज्जगुणग्भहियं द्वाणं ।। २१७ ॥ संखेज्जगुणन्महियं कंदयं गंतून असंखेज्जगुण महियं द्वाणं | २१८ | असंखेज्जगुणन्भहियं कंडयं गंतण अनंतगुणन्महियं द्वाणं ॥ २१९ ॥ अनंतभागन्भहियाणं कंडयवग्गं कंदयं च गंतूण संखेज्जभाग भहियद्वाणं ॥ २२० ॥ असंखेज्जभागन्महियाणं कंवयवग्गं कंदयं च गंतूण संखेज्जगुण भहियद्वाणं ॥ २२१ ॥ संखेज्जभागग्भहियाणं कंडयवग्गं कंदयं च गंतून असं खेज्जगुणन्भ हियद्वाणं ।। २२२ ।। संखेज्जगुणन्महियाणं कंबयवरगं कंदयं च गंतूण अनंतगुणन्भ हियं द्वाणं ।। २२३ ॥ संखेज्जगुणस्स हेट्ठदी अनंतभागन्महियाणं कंदयघाणो बेकंदयवग्गा कंदयं च ।। २२४ ॥ असंखेज्जगुणस्स हेदुदो असंखेज्जभागन्महियाणं कदयघणो बेकंदयवग्गा कदयं च ।। २२५ ॥ अंतगुणस्स हेट्ठदो संखेज्जभागन्महियाणं कदयघणो बेकदयवग्गा कंदय च ।। २२६ ।। असंखेज्जगुणस्स हेट्ठवो अनंतभागमहियाणं कंवयवग्गावग्गो तिष्णिकंदयघणा तिष्णिकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२७ ॥ अनंतगुणस्स हेट्ठवो असंखेज्जभागन्महियाणं कंदयवरगावग्गो तिष्णिकंदयघणा तिष्णिकंदयवग्गा कदयं च ॥ २२८ ॥ अनंत गुणस्स हेट्ठदो अनंतभागउहियाणं कंदयो पंचहदो चत्तारिकंवयवग्गा वग्गा छकंदयघणा चत्तारिकंदयवग्गा कंदयं च ।। २२९ ।। [ ध. पु. १२ पृ. १९३-२०२ ] अधस्तनस्थान प्ररूपणा में अनन्तभागवृद्धि काण्डकप्रमाण जाकर प्रसंख्यात भागवृद्धि का स्थान होता है ।। २१५ ।। अंगुल का असंख्यातवभाग कांडक का प्रमाण है । कांडक प्रमाण असंख्यात भागवृद्धि जाकर संख्यातभाग वृद्धि का स्थान होता है ।। २१६ ।। काण्डकप्रमाण संख्यात भागवृद्धि जाकर संख्यातगुणवृद्धि का स्थान होता है ।। २१७ ।। काण्डकप्रमाण संख्यात गुणवृद्धि जाकर असंख्यात गुणवृद्धि का स्थान होता है ।। २१८ ।। काण्डकप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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