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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११३९ afraiयम कोई भेद नहीं है । यदि क्षायिकसंयम अवान्तर भेद होते हुए, सिद्धभगवान के संयममार्गणा का निषेध होता तो यह निष्कर्ष निकालना संभव था कि सिद्धभगवान में क्षायिकसंयम नहीं होता । सिद्धभगवान व अरहन्त भगवान में नवकेवललब्धि की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । वीरसेनाचार्य ने भी श्री सिद्ध भगवान तथा श्री अरिहंतों में गुणकृत भेद की चर्चा करते हुए कहा है "अस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किन्तु सलेपनिलॅपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् । " [ धवल पु० १ पृ० ४७ ] अर्थ - यदि ऐसा है तो रहो, अर्थात् अरिहंत और सिद्धों में गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होप्रो, क्योंकि वह न्याय संगत है। फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद है । यदि दोनों परमेष्ठियों में गुणकृत भेद नहीं है, मात्र सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा भेद है तो सर्वप्रकार के कर्मलेप से रहित श्री सिद्धपरमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातियाकर्मों के लेप से युक्त श्री अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर श्री वीरसेनाचार्य ने इस प्रकार दिया है 'नैष दोषः गुणाधिक सिद्ध ेषु श्रद्धाधिवयनिबन्धनत्वात् । असत्यस्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मादादीनाम्, संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षया वादावर्हनमस्कारः क्रियते ।' [ ध० ५० १ पृ० ५३ ] । अर्थ - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सबसे प्रधिकगुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण श्री अरिहंत परमेष्ठी ही हैं, अर्थात् श्री अरिहंतपरमेष्ठी के निमित्त से ही अधिक गुणवाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है । यदि श्री अरिहंतपरमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम और पदार्थों का परिज्ञान नहीं हो सकता था, किन्तु श्री अरिहंतपरमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है, इसलिये उपकार की अपेक्षा भी प्रादि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है । न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्तेः भयेोहेतुत्वात् । अद्वैतप्रधाने गुणीभूतते तनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च । आप्तश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्य निबन्धनत्वख्यापनार्थ वार्हतामादौ नमस्कारः । ' [ धवल पु० १ पृ० ५४ ] अर्थ-यदि कोई कहे कि इसप्रकार आदि में अरिहंतों को नमस्कार करना तो पक्षपात है ? इसपर श्राचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है, किन्तु शुभपक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है तथा द्वैत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वंतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है । आप्त की श्रद्धा से ही प्राप्त आगम और पदार्थों के विषय में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बात को सिद्ध करने के लिये भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है । - प. ग. 24-6-65/VI-VII / Jain Education International निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग का स्वरूप शंका- निश्चय मोक्षमार्ग तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में होता है और व्यवहारमोक्षमार्ग चौथे से बारहवें के शुद्ध भाव को कहते हैं। क्या यह ठीक है ? *** S For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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