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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११३३ फिर भी उसको शरीर अवस्था उत्पन्न करने के लिये सहकारीकारणों की और बाधककारणों के अभाव की अपेक्षा रहती है । कहा भी है 'क्षीणकषाये वर्शन - चारित्रयोः क्षायिकत्वेपि मुक्तत्युत्पादने केवलापेक्षित्वस्य सुप्रसिद्धत्वात् ।' श्लो० वा० पृ० ४८७ प्र० पु० अर्थात् - क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान की आदि में सम्यक्त्व और चारित्र क्षायिक हो जाने पर भी मुक्तिरूप कार्य की उत्पत्ति करने में केवलज्ञान की प्रपेक्षा रहती है, यह भले प्रकार प्रसिद्ध है । मनुष्यायु की शेष स्थिति मुक्तिरूप कार्य की उत्पत्ति में बाधककारण है । केवलज्ञान के हो जाने पर भी वीतरागचारित्र में मुक्तिरूप कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति मनुष्यायु के शेष स्थिति-काल द्वारा बाधित हो रही है। जो आयु के अन्तिम समय में अथवा चौदहवें गुणस्थानवर्ती आयोगी जिनेन्द्र के अन्तिम समय में बाधक कारणों का अभाव हो जाने पर अपना कार्य अर्थात् मुक्ति को उत्पन्न कर देता है । तेनायो गिजिनस्यान्त्यक्षणवत प्रकीर्तितम् । रत्नत्रयमशेषाद्यविधातकरणं ध्रुवम् ॥ ४७ ॥ ( श्लो० वा० प्र० पु० पृ० ४८९ ) इसलिये अयोगीजिन के चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समयवर्ती रत्नत्रय सम्पूर्ण कर्मों का विघात करने वाला कहा गया है । केवलज्ञान आदि सहकारी कारणों से अथवा बाधककारणों के अभाव से बारहवेंगुणस्थान के क्षायिक चारित्र के श्रविभागी प्रतिच्छेदों में अथवा क्षायिकचारित्र में कोई वृद्धि नहीं होती है, जैसा कि कहा भी है " क्षायिक भावानां हानिर्नापि वृद्धिरिति ।" अर्थ - क्षायिक भावों के हानि भी नहीं होती और वृद्धि भी नहीं होती । भावों में हानि-वृद्धि का कारण प्रतिपक्षीकर्म है अत कर्म का क्षय हो जाने पर क्षायिक भाव में हानि-वृद्धि नहीं होती । इस अपेक्षा से बारहवें गुणस्थान में वीतरागचारित्र की पूर्णता हो जाती है। फिर भी वह, सहकारी कारणों के अभाव में श्रौर बाघक कारणों के सद्भाव में अनन्तर समय में मुक्तिरूप कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता, इसलिये साक्षात् कारण की अपेक्षा चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समयवर्ती वीतरागचारित्र को समर्थं कारण अथवा साक्षात् कारण कहा गया है। उससे पूर्व का रत्नत्रय परम्पराकारण अथवा असमर्थ कारण है। इन दोनों कथनों में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि मात्र विवक्षा भेद है । दोनों ही कथन अपनी अपनी विवक्षा से यथार्थ हैं । शंका- जब सभी जीवों के बारहवें गुणस्थान में पूर्णवीतरागचारित्र हो जाता है तो सभी जीवों को समान काल के पश्चात् ही मोक्ष हो जाना चाहिये था, किन्तु कुछ तो अन्तर्मुहूर्त पश्चात् हो मुक्त हो जाते हैं और कुछ आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होते हैं और कुछ इन दोनों के मध्यकालों में मुक्त होते हैं । इस काल की भिन्नता से यह ज्ञात होता है कि तेरहवेंगुणस्थान में सभी जीवों के वीतराग- परिणाम समान नहीं होते । तेरहवें गुणस्थान में वीतराग- परिणामों की विभिन्नता से यह सिद्ध होता है कि बारहवें - गुणस्थान में वीतरागचारित्र पूर्ण नहीं होता । समाधान - बारहवें आदि तीनों गुणस्थानों में सभी जीवों के वीतरागपरिणाम समान होते हैं, उनमें विभिन्नता नहीं है क्योंकि वीतरागता में विभिन्नता का कारण मोहनीयकर्म था, जिसका बारहवेंगुणस्थान के प्रथम - समय में अभाव हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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