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________________ ११३० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुम्तारः तम्हा णिवुदिकामो रागं सवत्थ कुणदि मा किचि । सो तेण वीवरागो भवियो भवसायरं तरवि ॥१७२॥ (पंचास्तिकाय) अर्थ-इसलिये मोक्षाभिलाषी जीव सर्वत्र किंचित् भी राग न करो। ऐसा करने से वह भव्य जीव वीत. रागी होकर भवसागर से तिरता है। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है"साक्षात्मोक्षमागंपुरस्सरो हि वीतरागत्वम् ।" अर्थात-साक्षात्मोक्षमार्ग में सचमुच वीतरागता ही अग्रसर है । शंका-पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने वीतरागता को साक्षात मोक्षमार्ग कहा है तो क्या उसका प्रतिपक्षी परम्परा मोक्षमार्ग भी है । यदि परम्परा मोक्षमार्ग नहीं तो साक्षात मोक्षमार्ग भी नहीं हो सकता, क्योंकि 'सर्व सप्रतिपक्ष है' ऐसा सिद्धान्त है। वह परम्परा मोक्षमार्ग क्या है? समाधान-साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रतिपक्षी परम्परा मोक्षमार्ग है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इस परम्परा. मोक्षमार्ग का कथन किया है। जो इसप्रकार है "अहंदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसमावद्योतनमेतत् ।" सपयत्यं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजमतव संपओत्तस्स ॥ १७० ॥ (पंचास्तिकाय) "यः खलु मोक्षार्थमुद्यतमनाः समुपाजिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसंभावित-परम-वैराग्य भूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्तिः पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदार्थः सहाहंवादिचिरूपा परन्समयप्रवृत्ति परित्यक्त्तु नोत्सहते, स खल न नाम साक्षान्मोक्षं लभते सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति ।" ___ अर्थ-अहंतादि की भक्तिरूप पर-समय प्रवृत्ति में साक्षात मोक्षमार्ग का अभाव होने पर भी परम्परा मोक्षमार्ग के सद्भाव का द्योतन करते हैं गाथार्थ-संयमतप संयुक्त होने पर भी, नव-पदार्थ तथा तीर्थकर के प्रति जिसका झुकाव है और जिनसूत्रों में जिसको प्रीति है, वह जीव अभी निर्वाण से दूर है। अर्थात् वह परम्परा से निर्वाण को प्राप्त करेगा। टीकार्थ-जो जीव वास्तव में मोक्ष के लिये उद्यमी है और अचिन्त्य संयम व तप का धारक है फिर भी परम वैराग्य को प्राप्त करने में असमर्थ है इसलिये नवपदार्थ तथा अहंतादि की प्रीतिरूप पर-समय प्रवृत्ति को त्याग नहीं सकता, वह जीव वास्तव में साक्षात् मोक्ष को प्राप्त नहीं करता अर्थात् उसी भव से मोक्ष नहीं जाता, किन्तु देवलोक आदि की परम्परा द्वारा निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। श्री जयसेनाचार्य ने भी इस गाथा की उत्थानिका में कहा है"अथाहंवादि-भक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तपुरुषस्य साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेपि परम्परया मोक्षहेतुत्वं द्योतयन् ।" अर्थात् -अहंत आदि भक्ति साक्षात् मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु परम्परा मोक्ष का कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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