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________________ १११४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार: इसप्रकार अर्थ करने पर सिद्धांत से बाधाएं आती हैं। प्रथम तो यह है कि मिथ्यादष्टि के बालतप द्वारा आंशिक अविपाक कर्मनिर्जरा मानने पर, मिथ्यादृष्टि का बालतप उपादेय हो जायेगा, क्योंकि सिद्धान्त में निर्जरातत्त्व उपादेय माना गया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने जब असंयतसम्यग्दृष्टि के तप को गुणकारी नहीं बतलाया है, तो मिथ्यादृष्टि जो नियम से असंयत होता है, उसका बालतप कैसे गुणकारी हो सकता है ? अर्थात् प्रविपाकनिर्जरा का कारण नहीं हो सकता है। किसी भी दि० जैनाचार्य ने मिथ्यादृष्टि के बालतप द्वारा अविपाक कर्मनिर्जरा का कथन नहीं किया है। बालतप के द्वारा मिथ्यात्वप्रकृति का दृढ़ बंधन होता है और अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसप्रकार मिथ्यादृष्टि के बालतप के द्वारा अविपाकनिर्जरा का निषेध हो जाने पर प्रश्न यह होता है कि सम्यग्दृष्टि जिसको सम्यग्ज्ञान है उसको 'ज्ञान बिन' या अज्ञानी कैसे कहा जा सकता है ? सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होते हुए भी जबतक क्रोधादि कषायों से निवृत्त नहीं होता है उससमय तक उसके पारमार्थिक सच्चे भेदविज्ञान की सिद्धि नहीं होती है। इस अपेक्षा से श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तथा श्री जयसेनाचार्य ने उसको अज्ञानी भी कह दिया है। जैसे कोई स्वांखा मनुष्य प्रकाश के होते हुए भी कूप में गिरता है तो उसको अंधा कहा जाता है श्री अमृतचन्द्रजी ने समयसार को टीका में कहा है "इत्येयं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भे जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्त. मानस्य पारमाथिकतभेवज्ञानासिद्धः। ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनामाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बंधनिरोधः सिद्ध येत किं च यदिदमात्मास्रवयोर्भवज्ञानंतरिकम् ज्ञानं किं वाज्ञान ? यद्यज्ञानं तवा तदभेवज्ञानान्न तस्य विशेषः । ज्ञानं चेत् किमास्रवेषु प्रवृत्तं किं वास्रवेभ्यो निवृत्तं ? आस्रवेषु प्रवृत्तं चेत्तदपि तद्भेदज्ञानान्न तस्य विशेषः। यत्त्वात्मारवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवति ।" इस तरह प्रात्मा और आस्रवों के तीन विशेषणोंकर भेद देखने से जिस समय भेद जान लिया उसी समय क्रोधादिक प्रास्रवों से निवृत्त हो जाता है। उनसे ( क्रोधादि आस्रव भावों से ) जबतक निवृत्त नहीं होता, तबतक उस आत्मा के पारमार्थिक सच्चे भेदविज्ञान की सिद्धि नहीं होती। इसीलिये यह सिद्ध हुना कि क्रोधादिक प्रास्रवों की निवृत्ति में अविनाभावी जो ज्ञान उसी से अज्ञान कर हआ जो पौद्गलिक कर्मों का बंध, उस बंध का निरोध होता है। यहां यह विशेष जानना-आत्मा और आस्रव का भेद है वह अज्ञान है कि ज्ञान ? यदि अज्ञान है तो आस्रव से अभेद हआ। यदि ज्ञान है तो आस्रवों में प्रवर्तता है कि उनसे निवृत्तिरूप है ? यदि मानवों में प्रवर्तता है तो वह ज्ञान आस्रवों से अभेदरूप प्रज्ञान ही है। तथा जो आत्मा और आस्रवों का भेद ज्ञान है, वह भी आस्रवों से निवृत्त न हुआ तो वह ज्ञान ही नहीं । इसका तात्पर्य यह है कि भेदज्ञान हो जाने पर भी यदि क्रोध आदि भावों से निवृत्त नहीं हो जाता तो वह अज्ञानी है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान और श्रद्धान होने पर भी वह क्रोधादि में प्रवर्तता है । इसप्रकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी सम्यग्ज्ञानी को अज्ञानी कहा है। पारमार्थिक ज्ञानी वही है जो निर्विकल्पसमाधि में स्थित होकर क्रोधादिक आस्रवभावों से निवृत्त होता है । ( अजमेर समयसार पृ० १९ ) श्री जयसेनाचार्य ने भी 'अज्ञानिना निर्विकल्पसमाधिभ्रष्टानां' शब्दों द्वारा निर्विकल्पसमाधि से रहित को अज्ञानी कहा है इसीप्रकार समयसार गाथा १६१ को टोका में भी कहा है-"त्रिगुप्तसमाधिलक्षणाभेदज्ञानाबाह्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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