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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११११ "सस्थाणसंजवउपकस्सगुणसे डिगुणागारादो असंजबसम्माविद्विसंजवासंजवसंजवेसु अणंताणुबंधि विसंयोजए तस्स जहण्णगुणसेडिगुणगारो असंखज्जगुणो।" ध० पु० १२ पृ० ८२ । अर्थ-स्वस्थानसंयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणि-गुणकार की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवों में से विसंयोजना करनेवाले जीव का जघन्यगुणश्रेणीगुणकार असंख्यातगुरणा है। इसीप्रकार दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा करनेवाले के विषय में जानना चाहिये। अनंतानबंधी की विसंयोजना में अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों का और दर्शन मोहनीय कर्म के द्रव्य का सत्त्व से क्षय होता है इसलिये चौथे व पांचवें स्थान में महाव्रती की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा कही है। -जं. ग. 26-6-67/IX/ रतनलाल सातिशयमिथ्यात्वी की गुणश्रेणिनिर्जरा से समकिती के असंख्यातगुणी निर्जरा शंका-क्या अविरतसम्यग्दष्टि को सातिशयमिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंख्यातगुणीनिर्जरा होती है ? समाधान-सातिशय मिथ्याडष्टि की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि अर्थात प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि को प्रथम अन्तमूहर्त में असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। हरिपु० सर्ग ६४ श्लोक ५२ व ५३ में कहा भी है-"सर्वप्रथम संज्ञी चेन्द्रिय पर्याप्तक भव्य जीव जब करणलब्धि से युक्त हो, अंतरंगशुद्धि को वृद्धिंगत करता है तब उसके बहत को की निर्जरा होती है। उसके बाद जब यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य कारणों के मिलने पर सम्यग्दृष्टि होता है तब उसके पूर्वस्थान की अपेक्षा असंख्यातगुणीनिर्जरा होती है।" अविरतसम्यग्दृष्टि के प्रथम अन्तमुहूर्त के पश्चात् यह निर्जरा रुक जाती है । शंका-क्या सातिशय मिथ्यादृष्टि के मिथ्यावृष्टि की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा होती है ? समाधान-साधारण मिथ्याइष्टि की अपेक्षा अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणवाले सातिशयमिध्यादृष्टि के असंख्यातगुणीनिर्जरा होती है । प्रपूर्वकरण के प्रथमसमय में वह गुणश्रेणी पायाम बनाता है । उस गुणश्रेणी आयाम के प्रथमसमय में वह जितना द्रव्य देता है उससे असंख्यातगुणा वह द्वितीयसमय में देता है इसप्रकार गुणश्रेणी आयाम के अन्तसमय तक देता है । यह गुणश्रेणी पायाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के काल से कुछ अधिक होता है। इसप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुणा-प्रसंख्यातगुणा द्रव्य अपकर्षणकर इस गलितावशेषगुणश्रेणीआयाम में देता है ( ल. सा० गाथा ५३, ७३, ७४ तथा ध० पु०६ पृ० २२४-२२७ )। जब गुणश्रेणी आयाम के निषेक उदय में आते हैं उसकाल में प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा सातिशयमिथ्याष्टि के होती है। -जं. ग. 4-4-63/IX/ मान्तिलाल प्रविपाकनिर्जरा का हेतु, संवरपूर्वकत्व तथा गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन शंका-अविपाकनिर्जरा का कारण तप हो है या और कुछ भी ? यह निर्जरा संवरपूर्वक ही होती है या संघर के बिना भी ? संवर होने पर होती ही है या नहीं भी? कौन से गुणस्थान से आरम्भ होती है ? समाधान-अविपाकनिर्जरा का मुख्य कारण तप है। इसीलिये त० स० अ० ९ में 'तपसा निर्जरा च ॥३॥' अर्थात् तप से प्रविपाकनिर्जरा होती है, ऐसा पृथक् सूत्र लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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