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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] 'सम्यग्वर्णनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है, अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा संवर श्रीर निर्जरा होती है । सम्यग्दर्शन और चारित्र की प्राप्ति का उपाय निम्नप्रकार है जब तक यथार्थ ज्ञान, श्रद्धान की प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न हुई हो तब तक तो जिनसे यथार्थ उपवेश मिलता है ऐसे जिन वचनों का सुनना, धारण करना तथा जिनवचन के कहने वाले श्री जिन गुरु की भक्ति, जिनबिद का दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है और जिसके धद्धान ज्ञान तो हुआ तथा साक्षात् प्राप्ति न हुई तब तक पूर्व कथित कार्य, परद्रव्य का आलम्बन छोड़नेरूप अणुव्रत महाव्रत का ग्रहण समिति, गुप्ति, पंचपरमेष्ठी का ध्यानरूप प्रवर्तन, उसीतरह प्रवर्तन वालों की संगति करना और विशेष जानने के लिये शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्ग में आप प्रवर्तना तथा अन्य को प्रवर्ताना ऐसे व्यवहारनय का उपवेश अंगीकार करना प्रयोजनवान है। व्यवहारमय को कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है। यदि सब असत्यार्थ जानकर छोड़ तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़े और शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति हुई नहीं इसलिये उलटा अशुभोपयोग में आकर भ्रष्ट हुआ यथा कथचित् स्वेच्छारूप प्रवर्ते तब नरकादिगति तथा परम्परा निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करता है। इस कारण साक्षात् शुद्धनयका विषय जो शुद्ध आत्मा उसकी प्राप्ति जबतक न हो तबतक व्यवहारनय भी प्रयोजनवान है ऐसा स्याद्वादमत में श्री गुरु का उपदेश है। ( समयसार पृ० २७ रायचन्द्र प्रन्थमाला ) इसी बात को भी अमृतचन्द्र आचार्य निम्न कलश के द्वारा कहते हैं उमयनयविरोध ध्वंसिनि स्यात्पदके, जिनवचसि रमंते ये स्वयं यांतमोहा। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चे, यमनयपक्षाक्षुण्णमांत एव ॥ ४ ॥ [ ११०१ पं० जयचन्द्रजी कृत अर्थ - निश्चय व्यवहाररूप जो दो नय उनके विषय के भेद से आपस में विरोध है । उस विरोध के दूर करनेवाला स्यास्पद कर चिह्नित जो जिन भगवान का वचन, उसमें जो पुरुष रमते हैं-प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं वे पुरुष बिना कारण अपने आप मिथ्यास्य कर्म के उदय का चमनकर इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्धआत्मा को शीघ्र ही अवलोकन करते हैं । कैसा है समयसाररूप शुद्धात्मा ? नवीन नहीं उत्पन्न हुआ है - पहिले कर्म से आच्छादित था वह प्रगट व्यक्तरूप हो गया है । फिर कैसा है- सर्वथा एकान्तरूप कुनय की पलकर खंडित नहीं होता, निर्वाध है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये निश्चय या व्यवहार के एकान्त पक्ष का त्यागकर अर्थात् किसी भी एक नय का सर्वथा एकान्तपक्ष ग्रहण नहीं करके स्याद्वादमयी जिनवचनरूप आग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए तथा जिन - गुरु (निर्ग्रन्थगुरु ) व जिनदेव के दर्शन और भक्ति करनी चाहिये । अथवा पंचमहाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म द्वादश अनुप्रेक्षा वाईस परिषहों को जीतना, पाँच पापों के त्यागरूप चारित्र और अंतरंग व बहिरंग तप द्वारा संवर व निर्जरा होती है। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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