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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार 1 १०९६ ] अर्थ - अविरत ( व्रतरहित ) सम्यग्दृष्टि का तप महोपकारक नहीं है, क्योंकि तप के द्वारा जितना कर्म आत्मा से छूटता है उससे बहुतर कर्म प्रसंयम से बंध जाता है ऐसा अभिप्राय निवेदन के लिये हस्तिस्नान का दृष्टान्त है । चुदच्छिद ( लकड़ी में छेद करने वाला बर्मा ) का एक पार्श्व भाग रज्जु से मुक्त होता है तो दूसरा पार्श्वभाग रज्जु से दृढ़ वेष्टित होता है, वैसे ही तप से अविरतसम्यग्दष्टि कर्म की निर्जरा करता है, परन्तु प्रविरतभाव के कारण उस निर्जरा से अधिक बहुतर कर्मों का ग्रहण होता है तथा वह कर्मबंध अधिक दृढ़ भी होता है । इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य और उनके टीकाकार श्री अमृतचन्द्रादि आचार्यों ने यह स्पष्टरूप से बतलाया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि का श्रद्धान व ज्ञान लाभदायक नहीं है, क्योंकि निर्जरा से अधिक कर्मबंध होता है । श्री गौतम गणधर ने भी द्वादशांग के 'महाकमंप्रकृतिप्राभृत' में कहा है - "जेते बंधना णाम तेसिमिमो गिद्द े सो । गदियाणुवावेण निरयगदीएरइया बंधा। तिरिक्खाबंधा | देव बंधा । मसा बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अस्थि ।" अर्थ- जो वे बंधक जीव हैं उनका यहाँ निर्देश किया जाता है। गतिमागंगा के अनुवाद से नरकगति में नारकीजीव बंधक हैं, तिथंच बंधक हैं, देव बंधक हैं, मनुष्य बंधक भी हैं, प्रबंधक भी हैं । यहाँ पर श्री गौतम गणधर ने यह बतलाया है कि अविरतसम्यण्डष्टि चतुर्थगुणस्थानतक के सर्वं नारकी, सर्वदेव तथा संयतासंयत पंचम गुणस्थान तक के सर्व तिर्यंच बंधक ही हैं, कोई भी नारकी, देव या तियंच प्रबंधक नहीं हैं। मनुष्यों में बंधक भी हैं, प्रबंधक भी हैं। श्री वीरसेनाचार्य बतलाते हैं कि कौन मनुष्य बंधक हैं और कौन अबन्धक हैं- "मिच्छता संजम कषायनोगाणं बन्धकारणाणं सध्वेसिमजो गिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया । सेसा सब्वेमनुस्सा बंधया, मिच्छता विबन्धकारण संजुत्तत्तादो ।" अर्थ - कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग हैं। अयोगकेवली चौदहवें गुणस्थान में इन सब बन्ध कारणों का अभाव होने से अयोगोजिन प्रबन्धक हैं, शेष सब मनुष्य बन्धक हैं, क्योंकि मिथ्यात्वादि बन्धकारणों से संयुक्त पाये जाते हैं । ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानों में छद्यस्थवीतरागी के और तेरहवें गुणस्थान में सयोगकेवली के यद्यपि मिथ्यात्व, अविरत और कषाय इन बन्ध-कारणों का अभाव हो गया है तथापि बन्ध के कारण योग का सद्भाव होने से वे भी बन्धक हैं । कहा भी है -- " जे कम्मबन्धया वे दुविहा - इरियावहबंधया सांपराइयबन्धया चेदि । तत्थ जे इरियावहबन्धया ते दुविहा- दुमत्था केवलिणो चेदि । जे छद्मत्था ते दुविहा-उवसंतकसाया खीणकसाया चेदि । न सांपराइयबन्धया ते दुबिहा - सहुमसां पराइया बादरसांपराइया चेदि ।" अर्थ- जो कर्मों के बन्धक हैं, वे दो प्रकार के हैं - ईर्यापथबंधक और साम्परायिकबंधक । इनमें से जो free हैं वे दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ और केवली । जो छद्यस्थ ईर्यापथबन्धक हैं वे दो प्रकार के हैंउपशान्तकषाय- ग्यारहवें गुरणस्थानवाले और क्षीणकषाय- बारहवें गुणस्थानवाले । जो साम्परायिकबन्धक हैं वे दो प्रकार के हैं - सूक्ष्मसाम्परायिक और बादरसाम्परायिक | असंयतसम्यग्दृष्टि के अविरति, कषाय और योग इन तीन बंध के कारणों का सद्भाव है फिर असंयतसम्यग्दृष्टि प्रबन्धक नहीं सकता । यदि अविरतसम्यग्दृष्टि को अबंधक माना जायेगा तो उपर्युक्त द्वादशांग के सूत्रों से विरोध प्रा जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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