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________________ १०६४ ] [प० रतनचन्द जैन मुख्तार । श्री पं० पन्नालालजी कृत अर्थ-जो कषायों के उपशमन अथवा क्षपण करने के कारण उनकी सूक्ष्मता से सहित है वह सूक्ष्मसाम्पराय नामक गुणस्थानवर्ती कहलाता है। इस गुणस्थान में रहनेवाला जीव सिर्फ संज्वलनलोभ के सूक्ष्म उदय से युक्त होता है। घुदकोसुभयवत्थं, होदि जहा सुहमरायसंजुतं । एवं सुहमकसाओ सुहमसरागोत्तिणादब्बो ॥ ५८ ॥ [ गो० जी० ] जिसप्रकार धुले हुए कसूमी वस्त्र में लालिमा सूक्ष्म रह जाती है, उसी प्रकार जो जीव अत्यन्त सूक्ष्मरागलोभ कषाय से युक्त है उसको सूक्ष्मसाम्परायनामक दशमगुणस्थानवर्ती कहते हैं । 'गोम्मटसारकर्मकाण्ड' में इस दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है, क्योंकि वहाँ पर सूक्ष्मसंज्वलनलोभ के उदय से सूक्ष्मराग होता है । "पञ्चानां ज्ञानावरणानां यशः कीर्तेरुच्चैर्गोत्रस्य पञ्चानामन्तरायाणां च मन्दकषायात्रवाणां सूक्ष्मसाम्परायो बन्धकः । तवभावावुत्तरत्रतेषां संवरः।" ( सर्वार्थ सिद्धि ९।१ ) श्री पं०कुलचन्दजीकृत अर्थ-मन्दकषाय के निमित्त से प्रास्रव को प्राप्त होनेवाली पांच ज्ञानावरण. चार दर्शनावरण, यश:कीति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन सोलहप्रकृतियों का सूक्ष्मसाम्परायजीव बंध करता है, अतः मन्दकषाय का अभाव होने से आगे इनका संवर होता है। हालाह। बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में 'कर्मोदय का अवलम्बन नहीं है, अपने स्वरूप का अवलम्बन है' फिर भी केवलज्ञान के प्रभाव के लिये ज्ञानावरणादिकर्म निमित्त बने हुए हैं। श्री अरहंत भगवान की विहार आदि क्रिया में नाम कर्म तथा शरीर स्थित रहने में प्रर्थात् ऊध्वंगमन स्वभाव का घात करने में प्रायुकर्म निमित्त कारण हैं । कुन्दकुन्वाचार्य ने कहा भी है __ "पुण्णफला अरहंता तेसि किरिया पुणो हि ओदइया।" अरहंत भगवान की क्रिया निश्चय से औदयिकी हैं अर्थात् कर्मोदय से होती हैं । पाउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं । पच्छा पावह सिग्छ लोयग्गं समयमेत्तेण ॥१७६ ॥ नियमसार आयुकर्म के क्षय से शेष प्रकृतियों का सम्पूर्ण नाश होता है, फिर वे शीघ्र समयमात्रमें लोकाग्रमें पहुँचते हैं। "आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोवंगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात् ।" ( धवल १।४७ ) जीव के ऊर्ध्वगमन. स्वभाव का प्रतिबन्धक प्रायुकर्म है । अवती सम्यक्त्वी प्रात्मा को प्रबन्धक मानना बन्ध तत्व विषयक भूल है शंका-कानजीस्वामी के अभिनन्दन ग्रंथ पृ० १६२ पर श्री रामजीमाई ने लिखा है कि "अविरतसम्यग्दृष्टि के कषायों की प्रवृत्ति नहीं होने से अबन्ध है और द्रव्यलिंगी के कषाय होने से बन्धरूप है।"क्या यह कथन ठीक है? यदि ठीक है तो मिश्रगुणस्थान में भी अनन्तानुबंधी व मिथ्यात्व का भी अभाव है अतः वहाँ भी अबंध मानना पड़ेगा जो कि किसी को भी इष्ट नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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