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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८८७ सकती है । एक समय में एक इन्द्रिय के द्वारा उसके विषय का ज्ञान हो सकता है, किन्तु पलटन बहुत शीघ्र होती रहती है अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्रियों की युगपत् प्रवृत्ति हो रही है। जैसे कौवे के आँख की गोलक तो दो होती हैं, किन्तु पुतली एक होती है । पुतली इतनी तेजी से फिरती है, जिससे यह प्रतीत होता है कि कौवा दोनो आँखों से देख रहा है। प्रवचनसार गाथा ५६ व टीका । -ने. ग. 28-1-71/VII/ रो. ला. मित्तल निद्रावस्था में उभयविध उपयोग का अभाव सम्भव है शंका-तत्त्वार्थसूत्र अ० २/ सूत्र ८ में उपयोगो लक्षणम् कहा है। लक्षण अतिव्याप्ति, अव्याप्ति व असम्भव दोषों से रहित होता है अतः जीव सुप्त, मूच्छित आदि अवस्था में भी ज्ञानोपयोग व वर्शनोपयोग में से किसी एक उपयोग से युक्त होता है, यह निश्चय हुआ। यानी निद्रावस्था में भी ज्ञानोपयोग का नरन्तयं उपरोक्त सूत्र से सिद्ध होता है. परन्तु आचार्य वीरसेन स्वामी ने तो धवल पु. १ व पुस्तक १३ में निद्रा में ज्ञानोपयोग व वर्शनोपयोग दोनों ही नहीं हो, यह भी सम्भव बतलाया है। तो क्या दोनों आचार्यों में मतभेद है ? समाधान-लम्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम्, उपयोगरूप न हो, लब्धिरूप चेतना ( उपयोग ) रहने में कोई बाधा नहीं। -पत्र 3-8-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर निद्राकाल में कथंचित् उपयोग रहता भी है, कथंचित् नहीं भी रहता शंका-अभी मेरे ज्ञानोपयोग वरत रहा है और उसी समय मुझे निद्रा आगई तो क्या वर्तता हुआ ज्ञानोपयोग नष्ट हो जाएगा? यानी निद्रा आने के क्षण से पूर्व के क्षण तक जो ज्ञानोपयोग चल रहा था वह भी अनन्तर क्षण में निद्रा आ जाने से नष्ट हो जाएगा क्या? समाधान-निद्रा के विषय में दो मत हैं । एक मत तो धवल पु० १ सूत्र १३१ को टीका में पृ० ३८३ पर है और दूसरा मत धवल पु० १३ में है। -पत्र 8-7-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर लब्ध्यपर्याप्तकों के भी उपयोग होता है शंका-लब्ध्यपर्याप्तक में ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग कैसे सम्भव है ? क्योंकि वहां पर द्रव्य इन्द्रिय व द्रव्यमन है ही नहीं। समाधान-इन्द्रियों से ही जीव को ज्ञान होता है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । कहा भी है "ण च इंदिएहितो चेव जीवे णाणमुप्पज्जदि, अपज्जत्तकाले इंदियाभावेण णाणामावप्पसंगावो। ण च एवं, जीवदव्याविणाभावि गाणदंसणाभावे जीववव्वस्स वि विणासप्पसंगादो।" [-जयधवल पु० १ पृ० ५१-५२] इन्द्रियों से ही जीव में ज्ञान उत्पन्न होता है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अपर्याप्तकाल में इन्द्रियों का अभाव होने से ज्ञान-दर्शन के अभाव का प्रसंग पाता है। यदि कहा जाय कि अपर्याप्त अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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