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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०८३ द्वादशांगसूत्रों के एकदेश का ज्ञान गुरुपरम्परा से श्री धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ था। श्री धरसेनाचार्य से यह ज्ञान श्री पुष्पवंत व श्री भूतबलि को प्राप्त हुआ था, जिन्होंने उन द्वादशांगसूत्रों को लिपिबद्ध कर दिया और शास्त्र का नाम षट्खंडागम रखा। इस षट्खण्डागम के छठे खण्ड महाबंध में मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग को कर्मप्रकृतियों के बन्ध का कारण कहा है, किन्तु आहारकद्विक और तीर्थकर इन तीनप्रकृतियों के लिये, मिथ्यात्व आदि को बन्ध का कारण न कहकर, सम्यग्दर्शन आदि को बन्ध का कारण कहा है। वे द्वादशांग के :सूत्र इसप्रकार हैं "आहारदुर्ग संजमपच्चयं । तित्थयरं सम्मत्तपच्चयं ।" ( म. बं. पु. ४ पृ. १८६ ) द्वादशांग के इन सूत्रों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन व संयम विशिष्ट-कर्म-प्रकृतियों के लिये बन्ध का भी कारण है, इसीलिये इन प्रकृतियों के बन्ध का कारण मिथ्यात्वादि को नहीं कहा गया है। द्वादशांग के सूत्रों का अनुसरण करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्त अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥१०९॥ ( समयसार ) बन्ध के करनेवाले सामान्यरूप से चारप्रत्यय ( कारण ) कहे गये हैं । वे चार प्रत्यय मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जानने चाहिए। जह्मा दु जहण्णादो गाणगुणावो पुणोवि परिणमदि । अण्ण गाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिवो ॥ १७१ ॥ वंसणणाणचरितं ज परिणमदे जहण्णभावेण । णाणी तेण तु बज्झवि पुग्गल कम्मेण विविहेण ॥ १७२ ॥ ( समयसार ) यद्यपि समयसार गाथा १०९ में मिथ्यात्वादि को बन्ध का कारण कहा है, किन्तु सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भी जब तक जघन्यभाव से परिणमते हैं अर्थात् अपनी उत्कृष्टदशा को प्राप्त नहीं होते हैं तबतक उनसे भी बन्छ होता है। दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविवव्वाणि । साहिं इदं मणिदं तेहि दु बन्धो व मोक्खो वा ॥ १६४ ॥ पंचास्तिकाय दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्षमार्ग हैं इसलिए वे सेवनयोग्य हैं ऐसा साधुनों ने कहा है। उन दर्शन-ज्ञानचारित्र से बन्ध भी होता है और मोक्ष भी होता है। इसप्रकार एककारण से दोकार्य बतलाये हैं। श्री समंतभद्रा. चार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में निम्न प्रकार कहा है देशयामि समीचीनं, धर्म कर्मनिवहणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २॥ संस्कृत टीका-'उत्तमे सुखे स्वर्गापवर्गादि प्रभवे सुखे, स धर्म इत्युच्यते ।' मैं समंतभद्राचार्य समीचीनधर्म को कहता है। वह धर्म कर्मों का नाश करनेवाला है तथा प्राणियों को जन्म-मरणरूपी दुःखों से छुड़ाकर उत्तमसुख अर्थात् स्वर्ग व मोक्ष सुख में रखने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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