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________________ १०८० [ पं० रतनचन्द जैन मुन्तारः शुभोपयोग से मात्र बंध ही होता हो ऐसा एकान्त नहीं है। शुभोपयोग से संवर व निर्जरा भी होते हैं। धवल व जयधवल जैसे महान् ग्रंथों के कर्ता श्री बीरसेनाचार्य ने कहा भी है "सुहसुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयामावे तक्खयाणववत्तीदो। ( ज० ध० पु० १ पृ०६) अर्थ-यदि शुभ परिणामों से और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। "अरहंतणमोकारो संपहियबंधादो असंखेज्जगुण कम्मक्खयकारओत्ति।" अर्थ-अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है। अरहंत णमोक्कारं भावेण य जो करेवि पयडमवी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ॥ अर्थ-जो विवेकी जीव भावपूर्वक मरहत को नमस्कार करता है, वह अतिशीघ्र सब दुःखों से मुक्त हो जाता है अर्थात् मोक्षपद प्राप्त कर लेता है । धर्मध्यान शुभोपयोग है । उस धर्मध्यान के द्वारा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकर्म का क्षय होता है इसीलिये धर्मध्यान मोक्ष का कारण है। भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव गायब्वं । असुहं च अट्टरुह सुह धम्म जिणवारदेहि ॥७६॥ भावपाहुड अर्थ-शुभ, अशुभ और शुद्ध ये तीनप्रकार के भाव जानने चाहिये । मातं-रौद्रध्यान अशुभ हैं और धर्मध्यान शुभ है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। ___ "मोहणीयविणास्ते पुण धम्मज्झाणफलं, सुहमसापरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभावो।" घ. पु० १३ पृ० ८१ अर्थ-मोहनीय का नाश करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिमसमय में उसका विनाश देखा जाता है। "परे मोक्ष हेतु ॥९॥२९॥" मोक्षशास्त्र इस सूत्र में श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने धर्मध्यान और शुक्लध्यान दोनों को मोक्ष का कारण बतलाया है। यदि शुभोपयोग से मात्र कर्मबंध ही होता और संवर-निर्जरा न होते तो धर्मध्यान, जो शुभोपयोगरूप है, मोक्ष का कारण न होता । अतः शुभोपयोग से मात्र बंध ही होता हो ऐसा एकान्त नहीं है, क्योंकि शुभोपयोग संवरनिर्जरा का भी कारण है। -जें. ग. 15-5-69/X/ सुमतप्रसाद (१) शुभोपयोग बन्ध व संवर-निर्जरा दोनों का हेतु है (२) शुद्धोपयोग से प्रास्रव भी होता है शंका-शुभोपयोग से तो कर्मबन्ध होता है, उससे संवर, निर्जरा कैसे हो सकती है ? चतुर्थ आदि गुणस्थानों में जितने अंशों में शुभोपयोग है उससे ही उन गुणस्थानों में संवर, निर्जरा होती है, शुभोपयोग से तो मात्र बन्ध ही होता है, ऐसा क्यों न माना जावे ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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