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________________ १०७४ ] [ प० रतनचन्द जैन मुख्तार 1 समस्त जीवों पर दयालु तीर्थंकर भगवान ने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पापों से विरति को महाव्रत कहा है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी चारित्रपाहुड में कहा है सार्हति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुवहि । जं च महत्लाणि तदो महल्लया इत्तेह ताई ॥ ३० ॥ अर्थ — महाव्रतों का श्रद्धान महापुरुष करते हैं, पूर्ववर्ती महापुरुषों ने इनका आचरण किया है और स्वयं भी महान् हैं अतः महाव्रत नाम सार्थक है | वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाव्रत चारित्र । समंतभद्राचार्य ने भी इन उपर्युक्त कहा है हिसानृतचीर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४६॥ ( २० क० श्रा० ) अर्थ - पाप की नालीस्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह से विरत होना अर्थात् ये पंचव्रत सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है । व्रत चारित्र है | चारित्र संवर और निर्जरा का कारण है अतः महाव्रत भी संवर- निर्जरा के कारण हैं । इसके विपरीत कथन करना अर्थात् महाव्रत को संवर-निर्जरा का कारण न मानना धर्म और श्रुत का अवशंवाद है । - जै. ग. 25-6-70/VII / का. ना. कोठारी भावलिंग महाव्रतरूप भाव बन्ध के कारण हैं या मोक्ष के ? शंका- भावलंगी महाव्रती छठे गुणस्थानरूप भाव बंध के कारण हैं या मोक्ष के ? समाधान - जीव के शुभ, अशुभ तथा शुद्ध तीन प्रकार के परिणाम होते हैं । जीव के जिस समय जो परिणाम होते हैं उस समय वह जीव उन परिणामों से तन्मय होता है । कहा भी है Jain Education International परिणमविजेण दव्वं, तक्कालं तम्मयन्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुलेदथ्वी ॥ ८ ॥ जीवो परिणमवि जदा, सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि, हि परिणामसमावो ||९|| प्रवचनसार अर्थ – जिससमय जिसभाव से द्रव्य परिणमन करता है उस समय द्रव्य उसी भावमय जाता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । इस कारण धर्म से परिणत आत्मा धर्म जानना । जब यह जीव शुभ प्रथवा अशुभ परिणामों कर परिणमता है तब यह शुभ व अशुभ होता है । जब यह जीव शुद्धभावरूप परिणमता है तब शुद्ध होता है । इस गाथा ९ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने इसप्रकार कहा है- "मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र इन तीन गुणस्थानों में जीव के तारतम्य से अशुभोपयोग होता है । उसके पश्चात् असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से शुभोपयोग होता है । उसके पश्चात् अप्रमत्त से क्षीणकषायगुणस्थानतक तारतम्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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