SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०७० ] बुद्धिपूर्वक बन्ध व उदय का स्वरूप, कारण तथा रोकने के उपाय शंका -- अबुद्धिपूर्वक बंध तथा उदय किसे कहते हैं। अबुद्धिपूर्वक बंध का कारण क्या है ? जब इसका उदय होता है तो हमें इसकी अनुभूति या ज्ञान होता है या नहीं ? आत्मा का इससे कितना सम्बन्ध है ? इसे कैसे रोका जा सकता है जब कि बुद्धि का वहाँ उपयोग ही नहीं है ? [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान – समयसार गाथा १७२ की टीका में कहा है कि जब तक ज्ञान सर्वोत्कृष्टभाव ( केवलज्ञान श्रवस्था ) को प्राप्त नहीं होता तब तक वह ज्ञान जघन्यरूप होता है । मोह के उदय के बिना ज्ञान की जघन्यता हो नहीं सकती इससे अबुद्धिपूर्वक मोह के उदय का सद्भाव पाया जाता है। पं० जयचन्दजी ने इस टीका के भावार्थ में 'अबुद्धिपूर्वक' के दो अर्थ किये हैं - "आप तो करना नहीं चाहता और परनिमित्त से जबरदस्ती से हो, उसको आप जानता है । तो भी उसको प्रबुद्धिपूर्वक कहना चाहिये। दूसरा वह कि अपने ज्ञानगोचर ही नहीं, प्रत्यक्षज्ञानी उसे जानते हैं तथा उसके अविनाभावी चिह्न कर अनुमान से जानिये है उसे अबुद्धिपूर्वक जानना ।" पं० राजमलजी ने भी गाथा १७२ के कलश की टीका में इसप्रकार लिखा है - " प्रबुद्धिपूर्वक परिणाम कहती पंचेन्द्रिय मन को व्यापार बिना ही मोहकर्म को उदय निमित्त पाय मोह, राग-द्वेषरूप अशुद्धविभाव परिणामरूप जीव प्रसंख्यातप्रदेश परिणवे सो यह परिणाम जीव की जान में नहीं और जीव का साराको ( अनुभव ) नहीं ।" समयसार गाथा १७२ की नीचे टिप्पणी दी है जिसका अर्थ भी यही है । अबुद्धिपूर्वक बंध का कारण राग-द्वेष अथवा कषायभाव है । जब प्रप्रमत्तदशा में चारित्रमोह के मंदउदय अबुद्धिपूर्वक रागद्वेष होता है तो उसका ज्ञान व अनुभव नहीं होता। रागद्वेष आत्मा के चारित्रगुण की वैभाविकपर्याय है अत: श्रात्मा का इससे तादात्म्य सम्बन्ध है, किन्तु त्रैकालिक तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है । अबुद्धिपूर्वक रागद्वेष के मेटिवे को निरंतरपने शुद्धस्वरूप को अनुभवे, शुद्धस्वरूप को अनुभव करने से सहज ही मिट जाय है । - जै. सं. 2-1-58 / VI / लालचन्द नाहटा, केकड़ी जघन्य रत्नत्रय कथंचित् बन्ध का कारण है शंका- 'मोक्षमागं प्रकाशक' में देवों का कथन करते हुए लिखा है— "बहुरि आयु बड़ी है । जघन्य दशहजारवर्ष, उत्कृष्ट इकतीससागर है। याते अधिक आयु का धारी मोक्षमार्ग पाए बिना होता नाहीं ।' " यहाँ पर प्रश्न यह है कि मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रयस्वरूप है, क्या रत्नत्रय भी देवायु के बंध का कारण है ? समाधान- - देवायु पुण्यप्रकृति है । उसकी उत्कृष्टस्थिति तैंतीस सागर का बंध करनेवाला मनुष्य रत्नत्रय का धारी होना चाहिये । कहा भी है Jain Education International "देवायु. उक्क. द्विदिबंध कस्स ? अण्णदरस्स पमत्तसंजदस्स सागार जागारसुदोवजोगजुत्तस्स तप्याओग्गविसुद्धस्स उक्कस्सियाए आबाधाए उक्क. द्विविबं वट्ट. " महाबंध पु० २ ० २५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy