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________________ १०६२ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : पानव है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय ओर सयोगकेवली के योग क्रिया से आये हए कर्म कषाय का चेप न होने से सूखी दीवाल पर पड़े हुए पत्थर की तरह अनन्तर समय में अकर्म भाव को प्राप्त हो जाते हैं, बंधते नहीं हैं, पर ईर्यापथमास्रव हैं। सूत्र २ की बार्तिक ५ में भी कहा है 'जैसे गीला कपड़ा वायू के द्वारा लाई गई धूलि को चारों पोर से चिपटा लेता है उसीतरह कषायरूपी जल से गीला मात्मा योग के द्वारा लाई गई कर्मरज को सभी प्रदेशों से ग्रहण करता है।' त. सू. अ.८ सू. २ में कहा है-'जीव सकषाय होने से कर्मयोग्य पूदगलों को ग्रहण करता है. वही बंध है' इसी प्रकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी तत्वार्थसार बन्धतत्त्व वर्णन के श्लोक १३ में कहा है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी समयसार में कहा है कि रागीपुरुष कर्म से बघता है। इन सब आगमप्रमाणों से सिद्ध है कि मात्र योग बंध का कारण नहीं है, किन्तु कषायसहित योग बंध का कारण है । अथवा कषाय से स्थिति अनुभागबंध होता है, ( गो. क. ) अतः कषाय बन्ध का कारण है । ___जैसा स्थिति, अनुभाग का बन्ध कषाय से होता है वैसा स्थिति, अनुभाग ईर्यापथआस्रव में नहीं होता, अतः स्थिति, अनुभागबन्ध नहीं होता। तथापि एकसमय की स्थिति का निवर्तक ईर्यापथकर्मबन्ध अनुभागसहित है ही, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसी कारण से ईर्यापथकर्म स्थिति और अनुभाग की अपेक्षा अल्प है ऐसा कहा है। (धवल पु. १३ पृ. ४९)। -जै.ग. 16-4-64/ एस. के. जैन एक ही भाव से बन्ध तथा मोक्ष शंका-जो परिणाम देवेन्द्र आदि पद के कारण हैं वे परिणाम संवर और निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं, क्योंकि जिन परिणामों से बंध होता है उन परिणामों से संवर-निर्जरा नहीं हो सकती ? समाधान-जो परिणाम देवेन्द्र आदि पद के कारण हैं, वे परिणाम संवर और निर्जरा के कारण नहीं हो सकते ऐसा एकांत नियम नहीं है। मिथ्यादृष्टि के जो परिणाम देवेन्द्र प्रादि पद के कारण हैं वे परिणाम संवर मौर निर्जरा के कारण नहीं हो सकते, क्योंकि निरतिशयमिथ्याष्टि के संवर और निर्जरा का अभाव है. किन्तु सम्यग्दृष्टि का तप अभ्युदयसुख और संवर-निर्जरा इन दोनों का कारण होता है, जैसे एक ही बिजली से नाना कार्य देखे जाते हैं। यदि यह कहा जावे कि इस कथन से कुछ विद्वानों के मत का खण्डन होता है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि इस कथन का समर्थन पार्षवाक्यों से होता है । प्रार्ष वाक्य ही प्रामाणिक हैं, क्योंकि वे वीतराग निग्रंन्थ गुरु के वाक्य हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी महान आचार्य हुए हैं जिन्होंने समाधिशतक और इष्टोपदेश नाम से आध्यात्मिक ग्रन्थ लिखे हैं । उन्हीं आचार्यवर ने स. सि. ग्रंथ अ० ९ सूत्र ३ की टीका में इसप्रकार लिखा है "मनु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात, कथं निर्जरङ्गस्यादिति ? नषदोषः, एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेवन भस्माङ्गाराविप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः।" अर्थ-कोई शंका करता है कि तप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट है, क्योंकि वह देवेन्द्र आदि स्थान विशेष की प्राप्ति के हेतुरूप से स्वीकार किया गया है, इसलिये वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है ? इसका समाधान करते हए प्राचार्य महाराज लिखते हैं-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अग्नि के समान एक होते हए भी इसके अनेक कायं देखे जाते हैं। जैसे अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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