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________________ २०५६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार से परमाणु नहीं बना है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवों के समूहरूप ही परमाणु दिखाई देता है। तथा अवयव संयोग का विनाश होना चाहिये यह भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अनादिसंयोग के होने पर उसका विनाश नहीं होता । जब परमाणु के अवयव हैं तो प्रदेश के भी प्रवयव होंगे, क्योंकि एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने क्षेत्र को आकाश प्रदेश कहते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है "आगासमणिविदु' आगासपवेस सण्णया-मणिदं ।" प्रवचनसार गाथा १४० ॥ अर्थ – एक परमाणु जितने आकाश अंश में रहता है, उतने आकाश की आकाशप्रदेश संज्ञा है । जब परमाणु और आकाश-प्रदेश के अवयव हैं तो समय ( सबसे जघन्यकाल ) के भी अवयव होंगे, क्योंकि जिसने काल में परमाणु एक प्राकाशप्रदेश को मंदगति से उल्लंघन करता है वह काल 'समय' है । अर्थ - परमाणु एक आकाश के प्रदेश को ( मंदगति से ) उल्लंघन करता है, उसके बराबर जो काल है अर्थात् उस उल्लंघन करने में जो काल लगता है वह समय ( सर्व जघन्यकाल ) है । विजय तं बेसं तस्सम समत्रो तबो परो पृथ्यो । जो अत्यो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धती ।। १३९ ।। प्रवचनसार इसप्रकार परमाणु, प्रदेश धौर समय ये तीनों कथंचित् सावयव है इसलिये एक ही समय में योग, घालव व बंध, तथा एक ही समय में कषायभाव का होना और उसके निमित्त से कार्मारणवगंगाओं में स्थिति अनुभागादिरूप बंध हो जाना अथवा एकद्रव्य की पर्याय का दूसरेद्रव्य की उसी समय में होनेवाली पर्याय पर प्रभाव पड़ जाना असंभव नहीं है । ऐसा भी नहीं है कि एकद्रव्य की पर्याय का दूसरे द्रव्य की पर्याय पर प्रभाव न पड़ता हो । श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने भी इसप्रकार के प्रभाव का कथन किया है। एवस्थात् रामो पसत्यभूवो वत्युविसेसेण णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव अर्थ- जैसे जगत में वो का वो ही बीज होने पर भी नानाप्रकार की भूमियों के कारण निष्पत्तिकाल में नानाप्रकार के धान्य फलित होते है ( अर्थात् अच्छी भूमि में उसी बीज से अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमि में वही बीज खराब न देता है या फल ही नहीं देता ) उसीप्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तुभेद से विपरीत फलता है। फलदि विवरी । सस्सकालम्हि || २५५ || प्रवचनसार "यतः परिणामस्वभावत्वेनात्मनः सप्ताचिः संगतं तोयमिवावश्यंभाविविकारश्वाल्लौकिकसंगात्संपतोऽप्यसंयत [ प्रवचनसार गाथा २७० टीका ] Jain Education International अर्थात् — जैसे अग्नि की संगति से जल अपने शीतलस्वभाव को छोड़कर उष्ण हो जाता है, क्योंकि अग्नि उष्ण होती है, उसीप्रकार संयत भी लौकिकजनों की संगति से असंयत हो जाता है, क्योंकि लौकिकजन असंपत होते हैं। श्री कुबाचार्य ने बीज और भूमि का तथा जल और अग्नि का दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया है कि धारमा पर भी परपदार्थों का प्रभाव पड़ता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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