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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०५३ अर्थ-जिसके बिना जो नहीं होता है, वह उसका कारण है। "यद्यस्य भावाभावानुविधानतोभवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विव इतिनुयायात् ।" धवल पु० १४ पृ० १३।। अर्थ-जो जिसके सद्भाव और असद्भाव का अविनाभावी होता है वह उसका है ऐसा कार्य-कारण के ज्ञाता कहते हैं यह न्याय है। इन आर्षग्रन्थों से सिद्ध है कि पुण्योदय से तथा चारघातियाकर्मों के क्षय से परहंतपद प्राप्त होता है। पुण्योदय के बिना चारघातियाकर्मों का क्षय भी नहीं हो सकता है। अतः श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने पुण्य का फल अरहंत पद कहा है। जिनकी बुद्धि इन आर्ष ग्रन्थों के विपरीत है उनकी बुद्धि में भ्रम हो सकता है। -जै.ग. 11-1-73/ 1..... बन्ध तत्त्व (१) योग व कषाय के समय में ही क्रमशः प्रास्रव व बन्ध हो जाते हैं (२) परमाणु, प्रदेश और समय तीनों कथंचित् सावयव हैं। (३) एक द्रव्य-पर्याय पर अन्य द्रव्य-पर्याय का प्रभाव पड़ता है शंका-जिस एक अविभागीसमय में आत्मा में योग होता है क्या उसी एक अविभागीसमय में कर्मानव होता है अथवा ठीक अगले समय में ? जिस अविभागीसमय में आत्मा का कषायपरिणाम होता है क्या उसी अवि. भागीसमय में पुद्गलवर्गणाओं में कर्मबंध पड़ जाता है अथवा ठीक अगले अविमागीसमय में ? एक ही अविभागी. समय में एकद्रव्य की पर्याय का प्रभाव दूसरे द्रव्य को उसी अविभागीसमय में होने वाली पर्याय पर कैसे पड़ सकता है? समाधान-जिस एक अविभागीसमय में योग होता है उसी एक अविभागीसमय में पुद्गल-द्रव्य-कर्मासव होता है। यदि यह माना जाय कि द्रव्यकर्मासव अनन्तर अगले समय में होता है तो सयोगकेवली अर्थात तेरहवें गुणस्थान के अन्तिमसमय के योग से चौदहवें गुणस्थान के प्रथमसमय में प्रयोगकेवली के पगल द्रव्यकर्म व आहारवर्गणाओं के आसव का प्रसंग आ जायगा। इसप्रकार योग से अनन्तर दूसरे समय में आसव मानने से पार्षवाक्यों का विरोध होता है। वे आर्षवाक्य निम्नप्रकार हैं "युज्यत इति योग" धवल पु० १ पृ० १३९ । अर्थात जो संयोग को प्राप्त हो वह योग है। "त्रिविधवर्गणालम्बनापेक्षः प्रवेशपरिस्पन्दो योगः सयोगकेवलिनोऽस्ति । तवालम्बनाभावावयोगकेवलिसिवाना योगाभावः ॥" [ सुखबोध तत्त्वार्थवृत्ति ६१] अर्थात-मन, वचन, काय इन तीनप्रकार की वर्गणाओं के आलम्बन की अपेक्षा से जो प्रात्म प्रदेशों का परिस्पन्द होता है वह योग है जो सयोगकेवली के भी होता है। मन, वचन, कायरूप वर्गणानों के आलम्बन का अभाव होने से अयोगकेवली और सिदों के योग का प्रभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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