SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०५० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार : रागद्वेषरूप भावकर्म का निमित्तकारण पुद्गल द्रव्यकमं है । शुद्धनिश्चयनय से ये जीवकृत नहीं हैं, किन्तु भावकर्म कार्य हैं इनका कर्ता अवश्य होना चाहिए अतः पारिशेष न्याय से पुद्गलद्रव्यकर्म इनका कर्ता है । रागादिक, पुद्गल की विभावपर्याय द्रव्यकर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं अतः रागादि पुद्गल के विभावभाव हैं ( यहाँ पर भाव का अर्थ पर्याय है ) पूगल की पर्याय होने से रागादिक अचेतन-मूर्तिक हैं अथवा चेतन को परिणति ज्ञान-दर्शनरूप है और रागादिक ज्ञानदर्शनरूप नहीं है । अतः चेतनगुण से भिन्न होने के कारण अचेतन हैं। रागादि, न शुद्ध जीव का स्वभाव है और न शुद्ध पुद्गल परमाणु का स्वभाव है प्रतः शुद्ध स्वभाव की दृष्टि में रागादिक नहीं हैं। श्री जयसेनाचार्यजी ने समयसार को टीका में कहा भी है-एते मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्ययाः शुद्धनिश्चये. नाचेतनाः । कस्मात् ? पुद्गलकर्मोदयसम्मवा यस्मादिति । यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पत्रो विवक्षावशेन वेवदत्तायाः पुत्रोऽयं केचन वदन्ति, देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन वदन्ति, दोषो नास्ति । तथा जीवपदगलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यास्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्ध निश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसम्बद्धाः । शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपावानरूपेणाचेतनाः पौगलिकाः परमार्थतः। पुनरेकान्तेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत् । वस्तुतस्तु सक्ष्मशनिश्चयनयेन न संत्येवाज्ञानोदभवाः कल्पिता इति । एतावता किमुक्तं भवति? ये केचन ववन्त्येकान्तेन रागाइयो जीवसम्बन्धिनः पुद्गलसम्बन्धिनः वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या। कस्मादिति चेत् ? पूर्वोक्तस्त्रीपुरुषदृष्टा. न्तेन संयोगोभवत्वात् । अथ मतं सूक्ष्मशुद्ध निश्चयनयेन कस्येति प्रयच्छामो वयं सूक्ष्मशुनिश्चयेन तेषामस्तित्वमेव नास्ति पूर्वमेव भणित ॥ ११६-११६॥ अर्थ-ये मिथ्यात्वरागादि भावप्रत्यय, शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से अचेतन हैं । अचेतन क्यों हैं ? क्योंकि ये भाव पुद्गलकमं के उदय से होते हैं, इसलिये अचेतन हैं। जैसे स्त्री और पुरुष दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ पूत्र है उसको उसकी माता की अपेक्षा से देवदत्ता का यह पुत्र है, ऐसा कोई कहते हैं। दूसरे कोई पिता की अपेक्षा से यह देवदत्त का पुत्र है, ऐसा कहते हैं। इस कथन में कोई दोष नहीं है, ( दोनों ही ठीक हैं ) तैसे ही जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न यह मिथ्यादर्शन व रागादिभाव प्रत्यय हैं सो अशुद्धनिश्चयनय व अशुद्ध उपादानरूप से तो चेतन हैं ( जीवसम्बन्धी होने से ) तथा शुद्ध निश्चयनय से व शुद्धउपादानरूप से ये अचेतन हैं, पौद्गलिक हैं, जड़ हैं, क्योंकि शुद्धआत्मा में इनका सम्बन्ध नहीं पाया जाता । तथा परमार्थ से विचारा जाय तो यह एकान्त से न तो जीवरूप हैं न पुद्गलरूप हैं, परन्तु जैसे चूना और हल्दी के संयोग से एक जुदा परिणाम उपजता है ऐसे ही जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए विभावभाव हैं । वास्तव में सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से यह मिथ्यात्व व रागादिभाव असल में कुछ भी नहीं हैं, ये अज्ञान से उत्पन्न कल्पितभाव हैं। इस कथन से क्या कहा गया ? इस कथन से यह कहा गया कि जो कोई एकान्त से ऐसा कहते हैं कि यह रागादिक भाव जीव सम्बन्धी है अथवा कोई कहते हैं कि यह पुद्गल सम्बन्धी हैं, इन दोनों के भी बचन मिथ्या हैं। मिथ्या क्यों हैं ? क्योकि पूर्व में कहे हुए स्त्री और पुरुष के दृष्टान्त के समान जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। यदि कोई प्रश्न करे कि सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से ये भाव किसके हैं तो यही कहा जा सकता है कि सूक्ष्म शुद्धनिश्चयनय से इनका अस्तित्व ही नहीं है। भाव का लक्षण प० ख० पु० ५ पत्र १८७ पर इसप्रकार कहा है-भावो गाम किं ? दश्वपरिणामो पृथ्व. बरकोडिवविरित वद्रमाण परिणामवलक्खियदव्वं वा। कस्स भावो? छण्हदवाणं । अर्थ-भाव नाम किस वस्तु का है? द्रव्य परिणाम को अथवा पूर्वापर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं । भाव किसके होता है ? छहों द्रव्यों के भाव होता है । इस आगम वाक्य से यह सिद्ध हुआ कि "विचार या अनुभव ( Thoughts and Feelings )" को भाव नहीं कहते किन्तु द्रव्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy