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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०४५ में कहा है-"बंधं पडिएयत्तं" अर्थात् -बंध की अपेक्षा से जीव और पुद्गल का एकत्व होरहा है, इसलिये शरीर मादि जड़ की क्रिया से जीव के आसव होता है । यदि यह कहा जावे कि भावशून्य क्रियाओं का फल नहीं होता। सो ऐसा एकान्त भी नहीं है, क्योंकि कहीं पर भावशून्य क्रियानों का भी फल देखा जाता है । जैसे श्री अहंत भगवान की कर्मोदयजनित विहार आदि भावशून्य शारीरिक क्रिया का फल मोक्ष देखा जाता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार गाथा ४५ की टीका में कहा है "क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तदुदयानुभावसंभावितात्मसंभूतितया किलोदयिक्येव । " निस्यमौवयिको कार्यभूतस्य बंधस्याकारणभूततया कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत ।" ___ अर्थात-उन अहंत की जो भी क्रिया है वह सब उस पुण्य के उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी है। वह नित्य प्रौदयिकी क्रिया बंध का तो कारण नहीं है, किन्तु मोक्षरूपी कार्य का कारण है इसलिये वह क्रिया क्षायिकी है। इस प्रकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भावशून्य क्रिया का फल मोक्ष स्वीकार किया है। प्रवचनसार गाथा २११ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने तथा उसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भावशून्य मात्र कायचेष्ठा का फल 'संयम का छेद' स्वीकार किया है। पयवम्हि समारद्ध छेवो समणस्स काय-चेटुम्हि । जायदि जदि तस्स पूणो आलोयणपब्विया किरिया ॥ २११॥ अर्थ-यदि श्रमण ( मुनि ) के प्रयत्नपूर्वक की जानेवाली कायचेष्टा में छेद होता है तो उसे तो आलो. चना पूर्वक अपने दोष को दूर करना चाहिये । "संस्कृत टीका-"द्विविधः किल संयमस्य छेवः बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः । तत्र यदि सम्यगुणयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमारब्धायाःकायचेष्टायाः कथंचिदहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथान्तरंगच्छेदजितत्वादालोचनापूविकया क्रिययैव प्रतिकारः। यदा तु स एवोपयोगाधिकृतच्छेवत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तवा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धश्रमणाश्रययालोचमपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ।" अर्थ-संयम का छेद दो प्रकारका है। बहिरंग और अन्तरंग ( उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी बहिरंग है और उपयोग संबंधी अंतरंग है। उसमें यदि भलीभांति उपयुक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा से कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अंतरंगछेद से रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतिकार होता है। किन्तु यदि वही श्रमण उपयोग संबधी छेद होने से साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहार विधि में कुशल श्रमण के प्राश्रय से, आलोचनापूर्वक, उनसे उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा प्रतिसंधान होता है । __ यह जो कहा गया है कि भावशून्य क्रिया का फल नहीं होता, इसका अभिप्राय यह है कि भावसहित होने से उस क्रिया का फल जितना होना चाहिये था, भाव रहित होने से उतना फल नहीं होता। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि भावशून्यक्रिया का फल बिलकुल नहीं होता। यदि सर्वथा ऐसा मान लिया जावे तो मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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