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________________ १०३६ ] "आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥" आकाश पर्यन्त अर्थात् धर्मद्रव्य अधमंद्रव्य और आकाशद्रव्य ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं । ये तीनों द्रव्य की अपेक्षा से एक एक है, किन्तु क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अनेक हैं। कहा भी है [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : "अवगाह्यनेकद्रव्य विविधावगाहनिमित्तत्वेन अनन्तमावस्वेऽपि प्रदेशभेदात् सति चानन्तक्षेत्रत्वे द्रव्यतः एकमेवाकाशमिति ।" रा. वा. अध्याय ५ सूत्र ६ वार्तिक ६ । अर्थ-आकाश को अवगाहन करनेवाले अनेक द्रव्यों के अनंत अवगाहन होते हैं इसलिये अनन्त श्रवगाहनों के कारण भाव की अपेक्षा यद्यपि आकाशद्रव्य अनन्त है एवं आकाश के अनन्तप्रदेश है इसलिये क्षेत्र की अपेक्षा भी आकाश अनन्त है, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा प्राकाश एक ही है। एक द्रव्य में प्रदेश ( खण्ड ) कल्पना मात्र हो सो भी बात नहीं है और प्रदेश भेद होने से अर्थात् खण्ड होने से एक द्रव्यपने की हानि हो जाती हो सो भी बात नहीं है। कहा भी है "एकद्रव्यस्य प्रवेशकल्पनोपचार इति चेत् न, मुख्य क्षेत्रविभागात् । मुख्य एवं क्षेत्रविभागाः अभ्यो हि घटावआकाशप्रदेशः इतरावगाह्यश्चान्य इति । यदि अन्यत्वं न स्यात्; व्याप्तित्वं व्याहन्यते । निरवयवत्वानुपपत्तिरिति चेत् न, द्रव्यविभागाभावात् । यथा घटो द्रव्यतो विभागवान् सावयवः, न च तथैषां द्रव्यविभागोऽस्तीति निरवयवत्वं प्रयुज्यते ।" ( रा. वा. अ. ५ सूत्र ८ ) गाह्यः एक प्रखण्डद्रव्य में प्रदेश कल्पना अर्थात् लण्ड कल्पना उपचार मात्र से है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि क्षेत्र की अपेक्षा से अलण्डद्रश्य में विभाग मुख्यरूप से हैं जिसको घट ने अवगाहन कर रखा है वह आकाश प्रदेश अन्य है और जिसको प्रभ्य पदार्थ ने अवगाहन कर रखा है वे प्राकाश प्रदेश अन्य हैं ऐसी प्रतीति है। यदि मुख्यरूप से क्षेत्र का विभाग न माना जायगा तो आकाश का व्यापकपना ही न सिद्ध होगा अर्थात् प्रदेशों को भिन्न भिन्न न मानकर यह घटाकाश है यह पटाकाश है यह मठाकाश है इसप्रकार प्राकाश ही भिन्न-भिन्न माना जायगा तो प्राकाश का व्यापकपना न बन सकेगा जिसप्रकार घटरूप द्रव्य के जुदे जुदे टुकड़े हो जाते हैं इसलिये वह सावयव अर्थात् अवयवविशिष्ट पदार्थ है उसप्रकार धर्म-अधर्म प्राकाश द्रव्यों के विभाग नहीं किसी भी कारण से घट के समान उसके जुदे जुड़े टुकड़े नहीं हो सकते, इसलिये उनका निश्वयवपना बाधित नहीं है। प्राकाशाद्रव्य के प्रदेश अन्य सब द्रव्यों और उनके प्रदेशों से अनन्तगुणे हैं, अतः आकाशद्रव्य सबसे बड़ा होने के कारण व्यापक है । आकाशद्रव्य के प्रदेशों की गणना इसप्रकार है "सव्यजीवरासी वग्गजमाना वग्गिजमाणा अनंतलोगमेत्तवग्गणद्वागाणि उवरिगंतॄण सव्यपोग्गलवब्वं पावदि । पुणो सध्वयोगालवम्यं वग्गिज्जमानं वग्गिज्जमानं अनंत लोगमेसवग्गणाणाणि उबरिगंतॄण सदाकालं पावदि । पुणो सवकाला वग्गज्माणा वग्गज्जमाना अनंतलोगमे तवग्गणद्वाणाणि उवरिगंतून सभ्यागाससेडि पार्यादि।" ( परिकर्म सूत्र एवं त्रिलोकसार गाथा ६९ की टीका ) अर्थ सर्व जीवराशिका उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकप्रमाण वर्गस्थान धागे आकर पुद्गल इभ्य प्राप्त होता है। पुनः सब पुद्गलद्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान पाये जाकर सब काल के समय प्राप्त होते हैं । पुनः सब कालसमयों का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सर्व आकाश के प्रदेश प्राप्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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