SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तिस्व और कृतित्व ] [ १०२७ सोनगढ़वालों ने अपनी टीका में इस सम्बन्ध में कोई आगमप्रमाण नहीं दिया है और न यह लिखा है कि वह किस ग्रन्थ के आधार पर जीव की गमनशक्ति को सीमित करते हैं। यदि किसी ग्रन्थ का उल्लेख होता तो उसपर अवश्य विचार किया जाता। मेरे देखने में ऐसा कोई आगमप्रमाण नहीं पाया जिसमें जीव की गमनशक्ति को लोक के अन्त तक ही बताया गया हो। अन्य विद्वानों से भी इस सम्बन्ध में चर्चा की, किन्तु उन्होंने भी ऐसे आगमप्रमाण का निषेध किया। धर्मास्तिकाय के कारण लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसा विभाग हो रहा है। जीवद्रव्य की उपादान गमनशक्ति सीमित न होते हुए भी धर्मास्तिकाय के प्रभाव के कारण जीव लोकाकाश से बाहर गमन नहीं करता। किसी भी कार्य के लिए अन्तरंग और बहिरंग ( उपादान व निमित्त ) कारणों की आवश्यकता होती है। किसी एक कारण के अभाव में कार्य का प्रभाव रहता है अर्थात् कार्य नहीं होता। जीवद्रव्य के गमन में धर्मद्रव्य सहकारी कारण है, जिस प्रकार मछली के गमन में जल कारण है। अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का प्रभाव होने के कारण ( अर्थात् बाह्यकारण का अभाव होने से ) जीव अलोकाकाश में गमन नहीं कर सकता जैसे तालाब से बाहर जल न होने के कारण मछली तालाब से बाहर गमन नहीं कर सकती। वर्षाकाल में जब जल तालाब से बाहर उमड़ आता है तो सहकारी कारण मिलजाने से मछलो तालाब के बाहर भी गमन कर जाती है। मछली में तालाब के बाहर भी गमनशक्ति रहते हुए भी सहकारी कारण के प्रभाव में बाहर गमन का प्रभाव पाया जाता है। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। शङ्काकार का उक्त कथन प्रत्यक्ष से बाधित होते हुए भी अब उस पर आगम की अपेक्षा से विचार किया जाता है। सोनगढ़वालों को श्रीमद कुन्दकुन्द भगवान के वचन अधिक इष्ट हैं अतः सर्वप्रथम श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्यविरचित ग्रन्थों के अनुसार लोक व अलोक के विभाग के कारण और जीव व पुद्गल की गमनशक्ति पर विचार किया जाता है। जादो अलोगलोगो, जेसि सम्भावदो य गमणठिदी । दो वि य मया विभत्ता, अविभत्ता लोयमेत्ता य॥७॥ पं० का० । अर्थात्-जिन धर्म-अधर्मद्रव्य के अस्तित्व होने से लोक और अलोक हुआ है और जिनसे गति स्थिति होती है, वे दोनों ही अपने-अपने स्वरूप से जुदे-जुदे कहे गए हैं, किन्तु एकक्षेत्रावगाह से जुदे-जुदे नहीं हैं। टीका-धर्माधमौं विद्यते लोकालोकविभागान्यथानुपपत्तेः । जीवादिसर्वपदार्थानामेकत्र वृत्तिरूपो लोकः । शुद्ध काकाशवृत्तिरूपोऽलोकः । तत्र जीवपुद्गलो स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ । तयोर्यदि गतिपरिणाम तत्पूर्वस्थितिपरिणाम वा स्वयमनुभवतोबहिराहेत धर्माधमौं न भवेताम, तवा तयोनिरर्गलगतिस्थिति परिणामस्वादलोकेऽपि वत्तिः केन वार्यत । ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत । धर्माधर्मयोस्त जीवपळगलयोग बहिरङ्गहेतुत्वेन सावे अभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो जायत इति । अर्थ-धर्म और अधर्म विद्यमान हैं क्योंकि अन्य प्रकार से लोक व अलोक का भेद नहीं हो सकता था। जहाँ जीवादि सब पदार्थ हों वह लोक है, जहाँ एक आकाश ही हो सो अलोक है। उन जीवादि द्रव्यों में से जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य अपने स्वभाव से गति और गतिपूर्वक स्थिति को प्राप्त होते हैं । उन दोनों (जीव और पुद्गल )का गतिरूप परिणमन व गतिपूर्वक स्थितिरूप परिणमन अपने आप होने पर यदि धर्म व अधर्मद्रव्य बहिरंग कारण न हों तो उन दोनों की गति व स्थिति निरगल ( बिना रोकटोक के ) होने से अलोक में भी उन दोनों की स्थिति को कौन रोक सकेगा? इसलिये लोक-अलोक का विभाग नहीं हो सकेगा। जीव व पुद्गल की गति व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy