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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०२३ (१) प्रशुद्ध निश्चयनय से पुद्गल क्या है ? (२) विविध प्रपेक्षाओं से व्यवहार भी निश्चय तथा निश्चय भी व्यवहार हो जाते हैं। शंका-'नियमसार' गाया २९ में पुद्गलपरमाणु को पुद्गल शुद्धनिश्चयनय से कहा और स्कन्ध को व्यवहारनय से ऐसा क्यों ? फिर अशुद्धनिश्चयनय से पुद्गल क्या है ? समाधान-'नियमसार' गाथा २९ में निश्चयनय का शब्द है, शुनिश्चयनय का शब्द नहीं है। 'नियम. सार' गाथा २९ निम्न प्रकार है पोग्गलवव्वं उच्चइ परमाणू णिच्छएण इदरेण । पोग्गलवव्वोत्ति पुणो ववदेसो होदि खंधस्स ॥२९॥ अर्थ-परमाणु को पुद्गलद्रव्य निश्चय से कहा जाता है और स्कन्ध का पुद्गलद्रव्य ऐसा नाम व्यवहार से है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चय और व्यवहार ऐसे दो शब्दों का प्रयोग किया है। निश्चय के शुद्धनिश्चय या अशुद्धनिश्चय तथा व्यवहार के सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार तथा उपचरितसद्भूतव्यवहार व अनुपचरितसद्भूतव्यवहार, उपचरितप्रसद्भूतव्यवहार व अनुपचरितअसद्भूतव्यवहार ऐसे भेद-प्रभेद की अपेक्षा कथन नहीं किया है । इसीलिये शुद्धनिश्चय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय को व्यवहार कहा गया है। असद्भूतव्यवहार की अपेक्षा सद्भूतव्यवहार को निश्चय कहा गया है। उपचरितसद्भूतव्यवहार को अपेक्षा अनुपचरितसद्भूतव्यवहार को निश्चय कहा गया है। उपचरितासद्भूतव्यवहार की अपेक्षा अनुपरितासद्भूतव्यवहार को निश्चय कहा गया है । ___ एक जीव दूसरे को सुखी दुःखी करते हैं अथवा मारते या जिलाते हैं, यह कथन उपचरितासद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से है । अपने कर्मोदय से ही जीव सुखी दुःखी होता है अथवा मरता जीता है, यह कथन अनुपचरिता सदभूतव्यवहारनय की अपेक्षा से है, किन्तु समयसार कलश १६८ में उपचरितासभूतव्यवहार की अपेक्षा अनुपचरितासद्भुत के कथन को निश्चय कहा है। इसी प्रकार समयसार गाथा ८३.८४ में असद्भूतव्यवहार की अपेक्षा सद्भूतव्यवहार के कथन को निश्चय कहा है। अणु और स्कन्ध दोनों पुद्गलद्रव्य की पर्यायें हैं। कहा भी है “आह किमेषां पुद्गलानामणुस्कन्धलक्षणः परिणामोऽनाविकत आदिमानित्युच्यते । स खलुत्पत्तिमत्त्वादादिमान प्रतिज्ञायते ।" [ सर्वार्थसिद्धि ५२२५ ] इन पुद्गलों का अणु और स्कन्धरूप परिणाम होना अनादि है या सादि है। अणु और स्कन्धरूप परिणाम उत्पन्न होता है इसलिये सादि है । "परमाणु पोग्गलाणं सो वन्यसहाव पज्जाओ ॥३०॥" ( नयचक्र ) अर्थ-परमाणु पुद्गल की स्वभावद्रव्यपर्याय है। पर्याय व्यवहार नय का विषय है। कहा भी है "ववहारो प वियप्पो भेवो तह पज्जओ ति एयट्ठो ॥५७२॥" ( गो. जी.) "व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्यायेण।" ( समयसार गा. १२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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