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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] इस सूत्र द्वारा अण और स्कन्ध दोनों को पुद्गलद्रव्य बतलाया है । परमाण पुद्गल की शुद्धपर्याय अर्थात् स्वभावपर्याय है । स्कन्ध पुद्गलद्रव्य को विभावपर्याय अर्थात् अशुद्धपर्याय है । पंचास्तिकाय में कहा भी है "शुद्धपरमाणु रूपेणावस्थानं स्वभावतव्यपर्यायः वर्णाविभ्यो वर्णान्तरादिपरिणमनं स्वमावगुणपर्यायः, प. गुकाविस्कन्धरूपेण परिणमनं विभावद्रव्यपर्यायाः तेष्वेव घणुकाविस्कन्धेषु वर्णान्तरादिपरिणमनं विभावगुणपर्यायाः।" (पंचास्तिकाय गाथा ५ को टीका ) शुद्धपरमाणु पुद्गल की स्वभावद्रव्यपर्याय है और यण क प्रादि स्कन्ध पुद्गल की विभाव अर्थात् अशुद्धपर्याय है। ___ सर्व परमाणु प्रों में गुणपर्याय एक प्रकार की नहीं होती है। कोई परमाण स्निग्ध है, कोई रूक्ष है। कोई परमाण शीत है, कोई परमाण, उष्ण है। इसीप्रकार रस, गंध, वर्णगुणों की पर्यायों में भी अन्तर सम्भव है। -ज. ग. 13-8-70/1X/....... १. परमाणु स्वयं प्रशब्द है २. एक पर्याय में दूसरी पर्याय नहीं होती शंका- परमाणु जब स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाला है तो वह शब्दरूप क्यों नहीं परिणमन करता है ? समाधान-पुद्गल की अणु और स्कंध ये दो पर्यायें हैं । श्री कुबकुंदाचार्य ने नियमसार में कहा भी है अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो। खंघसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जायो ॥२८॥ संस्कृत टीका-परमाणुपर्यायः पुद्गलस्य शुद्धपर्यायः । स्कन्धपर्यायः स्वजातीयबन्धलक्षणलक्षित्वावशुद्धः इति ॥ यहां पर यह बतलाया गया है कि अन्यद्रव्य निरपेक्ष होने से परमाणु रूप पर्याय पुद्गल की स्वभाव अर्थात् शुद्धपर्याय है । स्वजातीयबंध के कारण स्कंघरूप पर्याय पुद्गल की विभाव अर्थात् अशुद्धपर्याय है। अण रूप पर्याय में स्कंघरूप पर्याय का अभाव है, क्योंकि भिन्न-भिन्न पर्यायों में परस्पर इतरेतरअभाव होता है । कहा भी है सर्वात्मकं तदेकं स्यावन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्रसमवाये न व्यपविश्येत सर्वथा ॥१०॥ (जयधवल पु. १ पृ. २५१) श्री पं० कैलाशचन्द्रजी कृत अर्थ-एकद्रव्य की एकपर्याय का उसकी दूसरी पर्याय में जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते हैं। इस इतरेतराभाव के अपलाप करने पर प्रतिनियत द्रव्य की सभी पर्यायें सर्वात्मक हो जाती हैं। विशेषार्थ-प्राशय यह है कि इतरेतराभाव को नहीं मानने पर एकद्रव्य की विभिन्न पर्यायों में कोई भेद नहीं रहता, सब पर्यायें सब रूप हो जाती हैं। जिससमय परमाण रूप पर्याय है उससमय स्कन्धरूप पर्याय नहीं है, क्योंकि पर्यायें क्रम-क्रम से होती हैं । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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