SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ε९४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : वह क्रिया द्रव्य का स्वभाव न समझा जाय इस बात की निवृत्ति के लिए है। यदि क्रिया को द्रव्य का स्वभाव मान लिया जावे तो फिर द्रव्य सदा स्थिर न रहकर हलन चलनरूप ही रहेगा । पर्याय विशेष यह जो क्रिया का विशेषण वह क्रिया द्रव्य से भिन्न पदार्थं नहीं समझा जाय, इस बात की द्योतना के लिए है। यदि क्रिया भिन्न पदार्थ हो जावे तो द्रव्य सर्वथा निश्चल हो जावेगा । यहाँ पर बाह्यकाररण निरपेक्ष त्रिकालिकस्वभाव को अपेक्षा से क्रिया के जीव के स्वभाववने का निषेध किया, किन्तु क्रिया जीव की पर्याय है, कोई भिन्न वस्तु नहीं है, वार्तिक १४ व उसकी टीका इस प्रकार है - शरीरवियोगे निष्क्रियत्वप्रसंग इति चेन्न अभ्युपगमात् । अथवा, परनिमित्त क्रियानिवृत्तावपि स्वाभाविकी मुक्तस्योर्ध्वगतिरभ्युपगम्यते प्रदीपवत् । अथवा, स्याच्छरीरवियोगे मुक्तस्य निः क्रियत्वं यद्यनन्तवीर्यज्ञानदर्शनाचिन्त्य सुखानुभवनादयः क्रिया न अभ्युपगम्येरन् । अभ्युपगम्यन्ते तु तस्मादयमदोषः शरीरवियोगादात्मनो निःक्रियत्वप्रसङ्ग इति । अर्थ : शरीर ( कार्माणशरीर ) के वियोग हो जाने पर जीव क्रियारहित होता है, ऐसा कहने में कोई दोष नहीं, क्योंकि यह इष्ट है । प्रथवा, परनिमित्तकक्रिया का अभाव हो जाने पर भी, दीपक के समान मुक्तजीव के ऊर्ध्वगमनरूप स्वाभाविक क्रिया मानी गई है । अथवा, यदि शरीर के वियोग में मुक्तजीव को क्रियारहित माना जायगा तो अनन्तवीर्य, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अचिन्त्यसुख का अनुभव करना आदि क्रियाएं मानी गई हैं वे न मानना चाहिए। किन्तु वे मानी गई हैं, इसलिए शरीर के प्रभाव में आत्मा निष्क्रियपदार्थ है यह दोष यहाँ लागू नहीं हो सकता । पं० का० गाथा २८ को टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरिजी ने इस प्रकार कहा है- - आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्न ेव क्षरणे मुच्यते तस्मिन्नेवोध्वं गमनस्वभावत्वाल्लोकान्तमधिगम्यः परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः । जिस क्षण में समस्त कर्मों से आत्मा मुक्त होता है उसी क्षरण में आत्मा ऊर्ध्वगमनस्वभाव होने के कारण लोक के श्रन्ततक जाकर ठहर जाता है, क्योंकि आगे गतिहेतु ( धर्मद्रव्य ) का प्रभाव है । वृहद्रव्यसंग्रह गाथा २ में भी कहा है-विस्स सोउढ गई अर्थात् जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है । इस गाथा की टीका में इसप्रकार कहा है – यद्यपि व्यवहारेण चतुर्गतिजनक कर्मोदयवशेनोष्वधिस्तिर्यग्गति स्वभावस्तथापि निश्चयेन केवल ज्ञानाद्यनन्तगुणावाप्ति लक्षण मोक्षगमनकाले विस्रसा स्वभावेनोदृर्ध्वगतिश्चेति । अर्थ : यद्यपि व्यवहार से चारों गतियों को उत्पन्न करनेवाले कर्मों के उदयवश ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करनेवाला है फिर भी निश्चयनय से केवलज्ञानादि अनन्तगुणों की प्राप्तिस्वरूप जो मोक्ष उसमें जाने के काल में स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला । इस प्रकार अशुद्ध निश्चयनय से परिस्पन्दरूप क्रिया जीव का स्वभाव है और शुद्धनिश्चयनय से ऊर्ध्वगतिरूप क्रिया जीव का स्वभाव है; किन्तु परिस्पन्दरूप क्रिया जीव का स्वभाव नहीं है। शुद्धप्रवस्था में मुक्तजीव को परिस्पन्दरूप वैभाविकक्रिया के अभाव की अपेक्षा निष्क्रिय कहा है । पुद्गलों में क्रियाशीलता पुद्गलों की क्रिया में कालनिमित्त कारण है और काल का अभाव नहीं होता अतः पुद्गल सिद्धों के समान निष्क्रियपने को प्राप्त नहीं होता जैसा कि पं० का० गाथा ९८ की टीका में कहा है-पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरंगसाधनं परिणाम निर्वर्तकः काल इति ते कालकरणाः । न च कर्मादीनामिव कालस्याभाव: । ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति । पुद्गलों की क्रिया स्वाभाविक और प्रायोगिक दो प्रकार की होती है जैसा त० रा० वा० अ० ५ सू० ७ की वार्तिक १६ में कहा है- पुद्गलानामपि द्विविधा क्रिया विस्रसा प्रयोगनिमित्ता च अतः को स्वाभाविकक्रिया के लिए जीव के संयोग की आवश्यकता नहीं है। पुद्गलपरमाणु का जीव पुद्गलपरमाणु के साथ संयोग भी नहीं हो सकता, क्योंकि जीव का संयोग स्कन्ध के साथ हो सकता है । - जं. सं. 23-8- 56 / VI / बी. एल. पद्म, शुजालपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy