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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार चारित्र के बिना मात्र भेदज्ञान से मोक्ष प्राप्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है । कहा भी है "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥११॥ ( तत्त्वार्थ सूत्र ) "असंयतस्य च यथोदितात्मतत्वप्रतीतिरूप श्रद्धानं यथोवितात्मतत्वानुभूतिरूपज्ञानं वा कि कुर्यात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । अतः आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतव ।" प्रवचनसार गाथा २३७ टोका £55 ] आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान व आत्मतत्त्व का अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत ( संयमरहित के ) क्या लाभ करेगा ? इसलिये संयमरहित श्रद्धान व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती अतः श्रागमज्ञान, तत्त्वार्थं श्रद्धान व संयतत्व की अयुगपत्वाले के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता है । अत: मात्र भेदज्ञान से सम्पूर्ण कर्मों का बंध नहीं रुकता, यथाख्यातचारित्र हो जाने पर कर्मबन्ध नहीं होता । --- जं. ग. / 6-1-72 / VII / जीव निराकार यानी स्पर्शादिगुणरहित है। शंका- जीव को निश्चयनय से निराकार ( अमूर्तिक ) माना है, किन्तु मुक्तावस्था में जीव को उसके अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकारवाला बतलाया है । अतः इसप्रकार तो शुद्धमुक्तजीव भी साकार हो सिद्ध हुआ तब वह अमूर्तिक कैसे कहा जा सकता है ? समाधान - जिस द्रव्य में स्पर्श, रस, गन्ध और वणं गुण पाये जाते हैं, वह द्रव्य मूर्तिक कहलाता है और जिस द्रव्य में स्पर्श, रस, गन्ध नौर वर्णं गुण न हों वह द्रव्य प्रमूर्तिक है । स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण गुरण स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है अतः मूर्तिकद्रव्य को इन्द्रियग्राह्य कहा है। पुद्गलद्रव्य में स्पर्शादि गुण पाये जाते हैं अत: पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है और जीवादि शेष पाँच द्रव्यों में स्पर्शादि गुण नहीं पाये जाते श्रतः वे अमूर्तिक हैं । कहा भी है Jain Education International ...... मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्यपगा अरोगविधा । वाणममुत्ताणं गुणा अमुक्ता मुखेव्वा ॥ १३१ प्र. सा. ॥ अर्थ- इन्द्रियग्राह्यमूर्तगुण पुद्गलद्रव्यात्मक अनेक प्रकार के हैं, अमूर्त द्रव्यों के गुण अमृतं जानने चाहिए । कहीं-कहीं पर मूर्त को साकार और अमूर्त को निराकार कहा है । वहाँ पर आकार शब्द द्वारा स्पर्शादि गुणों को ग्रहण करना । आत्मा का कोई निश्चित प्राकार नहीं है । सिद्धों ( मुक्त जीवों) में भी नाना आकार हैं अतः जीव श्रनिर्दिष्टसंस्थान है । अनिर्दिष्टसंस्थान होने के कारण भी जीव को निराकार कहा है । निराकार का यह अर्थ नहीं है कि द्रव्य का कोई आकार नहीं है। हर एक जीवद्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य है, जीव में प्रदेशत्व गुण विद्यमान है। यहाँ पर निराकार का अर्थ 'स्पर्शादिगुणरहित' है । —जै. सं. 23-8-56/VI/ बी. एल. पद्म, शुजालपुर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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