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________________ १८६ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : है. प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार स्वभाव नहीं है। यदि यह कहा जाय कि जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर फैले हुए प्रावरण रहित रहते हैं फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसीप्रकार जीवप्रदेशों का भी भावरण हुआ है? ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीवप्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तानरूप से चले आये हुए शरीर के प्रावरणसहित ही रहते हैं, इसकारण जीवप्रदेशों का संहार नहीं होता । विस्तार व संहार शरीरनामकर्म के आधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है। इसकारण शरीर का अभाव होने पर भी जीव प्रदेशों का विस्तार नहीं होता है। ज'. ग. 29-6-72/IX/ रो. ला. मित्तल सिद्धों में रागादिरूप परिणत होने की शक्ति है या नहीं ? शंका-सिद्ध परमात्मा में रागादि तथा मिथ्यात्वरूप परिणमन करने की शक्ति है या नहीं ? क्या शक्ति का कभी नाश हो सकता है ? समाधान-बिना परद्रव्य के निमित्त के केवल ( अकेला ) प्रान्मा अपने आप रागादि तथा मिथ्यात्वरूप परिणमन नहीं कर सकता। कहा भी है-यथा खलु केवल स्फटीकोपलः परिणामत्वस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते । परद्रव्येणव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्थ रागादिनिमित्तभूतेन, शद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते; तथा केवल: किलास्मा, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्यणव स्वयं रागादिभावापन्नतया रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागाविभिः परिणम्यते । इति तावद्वस्तुस्वभावः। समयसार गाथा २७८-२७९ आ० ख्या० अर्थ-जैसे वास्तव में केवल ( अकेला ) स्फटिकमणि, स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी, अपने को शुद्धस्वभावत्व के कारण रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने आप रागादिरूप नहीं परिणत होता, किन्तु जो अपने आप रागादिभाव को प्राप्त होने से स्फटिकमरिण के रागादि का निमित्त होता है, ऐसे परद्रव्य के द्वारा ही शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिरूप परिणमित किया जाता है। इसीप्रकार वास्तव में केवल [ अकेला ] आत्मा, स्वयं परिणमनस्वभाववाला होने पर भी अपने शुद्धस्वभाव के कारण रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने पाप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु जो अपने आप रागादिभाव को प्राप्त होने से आत्मा को रागादि का निमित्त होता है ऐसे परद्रव्य के द्वारा ही, शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है। ऐसा वस्तुस्वभाव है। और भी कहा है आत्मात्मनारागादीनामकारक एव, अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयो विध्योपदेशान्यथानुपपत्तः। यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोध्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स, द्रव्यमावयोनिमित्तनैमित्तिकभावं प्रथयन, अकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितम-परद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावा: । यद्यवं नेष्येत तदा द्रध्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात, तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुसङ्गात मोक्षाभावः प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागादीनामकारक एव आत्मा। समयसार २८३-२८५ आ० ख्या. अर्थ-आत्मा स्वतः रागादि का अकारक ही है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो अप्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान की द्विविधता का उपदेश नहीं हो सकता। अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान का जो वास्तव में द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश है वह द्रव्य और भाव के निमित्त-नैमित्तिकत्व को प्रगट करता हुआ आत्मा के अकर्तृत्व को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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