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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [९८३ "पोग्गलवव्वंपि जीवो होज; अचेयणतं पडि विसेसाभावादो। ............ण च चेयणदवाभावो, पच्चक्खेण बाहुबलंभादो, सम्धस्स सप्पडिवक्खस्सुवलंभावो च । ण चाजीवावो जीवस्सुप्पत्ती, वन्यस्सेअंतेण सप्पत्तिविरोहादो। णच जीवस्स ववत्तमसिद्ध, मज्झावस्थाए अक्कमेण ववत्ताविणाभावि तिलक्खणत्त वलंभावो। [ ज. ध. १ पृ० ५२.५४, नवीन संस्क० पृ० ४७.४९ ] __ अर्थ- यदि जीव का लक्षण अचेतन माना जायगा तो पुद्गलद्रव्य भी जीव हो जायगा, क्योंकि अचेतनत्व की अपेक्षा इन दोनों में कोई विशेषता नहीं रह जाती है। चेतनद्रव्य का प्रभाव किया नहीं जा सकता है, क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा स्पष्टरूप से चेतनद्रव्य की उपलब्धि होती है। तथा समस्तपदार्थ अपने प्रतिपक्षसहित ही उपलब्ध होते हैं, इसलिये भी अचेतनपदार्थ के प्रतिपक्षी चेतनद्रव्य के अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है। यदि कहा जाय कि अजीव से जीव की उत्पत्ति होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य की सर्वथा उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि जीव का द्रव्यपना किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मध्यम-अवस्था में द्रव्यत्व के अविनाभावी उत्पाद व्यय और ध्र वरूप विलक्षणत्व की युगपत् उपलब्धि होने से जीव में द्रव्यपना सिद्ध ही है। चार्वाकमत अजीव से जीव की उत्पत्ति मानता है उसका खण्डन वृहद्वव्यसंग्रह की टीका आदि अनेकों भाषग्रन्थों में है। वहां से विशेष कथन देख लेना चाहिये। -जं. ग. 20-3-67/VII/ र. ला. जैन, मेरठ मात्र एक ही आकाश प्रदेश में एक जीव नहीं टिकता शंका-आकाश के एक प्रदेश पर अनन्त जीव बतलाये हैं और एक जीव कम से कम असंख्यात प्रदेशों पर रहता है। फिर दोनों बात कैसे ? समाधान-निगोदियाजीव की जघन्यअवगाहना घनांगुल के असंख्यातवेंभागप्रमाण है जिसमें आकाश के असंख्यातप्रदेश होते हैं। प्रतः एक जीव कम से कम असंख्यातप्रदेशों पर आता है। किंतु उस निगोदियाशरीर में अनन्तानन्त जीव रहते हैं। आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर जहाँ एक निगोदिया के प्रात्मप्रदेश हैं वहीं पर अनन्तानन्त जीवों के भी प्रात्मप्रदेश हैं । इसप्रकार दोनों बातों में परस्पर कोई विरोध नहीं है। -णे. ग. 10-7-67/VII/ र. ला. जैन जीव का एकप्रदेशत्व शंका-जीव का एकप्रवेशी स्वभाव आलापपद्धति में कहा, सो कैसे ? समाधान-प्रत्येक जीव एक प्रखंडद्रव्य है। जिसप्रकार बहुप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध के खंड हो जाते हैं, उस प्रकार बहुप्रदेशी एक जीवद्रव्य के खण्ड नहीं हो सकते क्योंकि वह एक अखण्डद्रव्य है। किन्तु पुद्गलस्कन्ध नाना पदगल द्रव्य ( परमाणमों का बंध होकर एक पिण्ड बना है। अतः भेदकल्पना निरपेक्षदष्टि से प्रखण्ड एकदव्य होने के कारण जीव एकप्रदेश स्वभाव वाला है। कहा भी है-भेवकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखण्डत्वावेकप्रदेशस्वम् । -जं. ग. 18-6-64/IX/ प्र. लाभानन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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