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________________ ७८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थात् – यदि द्रव्य क्रोधादि कर्मोदय के बिना जीव भावक्रोधादिरूप परिणम जावे तो मुक्तजीव भी द्रव्यधादि कर्मोदय के निमित्त के बिना भावक्रोधरूप परिणम जावेंगे; किन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि आगम से विरोध श्रा जायेगा | इन आषं प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जीव के विभावपरिणाम के लिये कर्मोदय निमित्त होता है और कामणवगंणा को ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करने में जीवके रागादिपरिणाम निमित्त होते हैं । इसप्रकार निमित्त- नमित्तिक सम्बन्ध मानना सम्यक्त्व है, मिथ्यात्व नहीं है । - जै. ग. 4-6-70/ VII / रो. ला. मित्तल १. जीव के विकारों में कर्म की कारणता २. कुन्दकुन्द ने भी कर्म के हेतु से ही जीव-विकार का होना कहा शंका-कुछ समयसार ग्रंथ के वेत्ता इसप्रकार कहते हैं - (क) ज्ञानावरण के कारण ज्ञान अटका ? नहीं; अपनी योग्यता के कारण ही ज्ञान अटका है । (ख) कर्म के उदय के कारण जीव को विकार हुआ ? नहीं; जीव को पर्याय में वैसी योग्यता के कारण ही विकार हुआ है । (ग) गुरु के कारण ज्ञान हुआ ? नहीं; अपनी योग्यता से ही ज्ञान हुआ है । क्या उनका ऐसा कहना युक्त है ? समाधान --- समयसारग्रन्थ के वेत्ताओं ने इसप्रकर नहीं कहा है और न वे ऐसा कह सकते हैं, क्योंकि वाक्य "योग्यता के कारण ही" में शब्द "हो" अन्य कारणों का निषेधक होने से एकान्त का द्योतक है । मिध्यात्व के पाँच भेदों (संशय, विपरीत, एकान्त, अज्ञान और विनय ) में से 'एकान्त' भी मिध्यात्व का एक भेद है । श्रागम और युक्ति से इस शंका पर विशेष विचार किया जाता है । आगम इसप्रकार है- श्री समयसार के रचयिता श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इस विषय में यह कहा है Jain Education International (१) जीवपरिणामहेतु कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणम ॥८०॥ [ समयसार ] अर्थ — जीव के परिणाम के कारण से पुद्गल कर्मरूप परिणमते हैं, उसीप्रकार पुद्गलकर्म के निमित्त कारण से जीव भी परिणमन करता है । (२) वत्थस्स सेद-भावो जहणासेदी मलमेलणासत्तो । मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्त खु णायव्वं ॥ १५७॥ वरथस्स सेव - मावो जहणासेदी मलमेलणासत्तो । अण्णाणमलोच्छष्णं तह णाणं होदि णायव्वं ॥ १५८ । । वत्थस्स सेव-भावो जहणासेवी मलमेलणासत्तो । कसायलोच्छष्णं तह चारितं वि णायध्वं ।। १५९ ॥ [ समयसार ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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