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________________ व्यक्तित्व प्रोर कृतित्व ] [ ९७५ ना है, बिना व्याप्यव्यापकभाव कर्ताकम्पना संभव नहीं है । अतः निश्चयनय से मिथ्यात्व ( मोह ) रागद्वेष का कर्ता पुद्गलकर्म है, जीव तो रागादि का ज्ञाता है । ( समयसार गाथा ७५ आत्मख्याति टीका ) श्री जयसेनजी ने भी कहा है- 'निश्चयनयेन रागादयः कर्मोदयजनिता' अर्थ - निश्चयनय से रागादि कर्मोदयजनित हैं ( समयसार पृष्ठ ३८२ रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला ) । व्यवहारनय से रागादि जीव के हैं, जीव की अवस्था है और जीव इनका कर्ता है। 'रागी द्वेषी, मोही जीवकर्म से बंधता है, उसे छुड़ाना है' इत्यादिक उपदेश व्यवहारनय के अनुसार बनता है, क्योंकि निश्चयनय से तो जीव बंधा नहीं है । ( समयसार गाथा ४६ आत्मख्याति टीका ) । यह उपर्युक्त कथन शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से प्रागमानुसार किया गया है। अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कथन इसप्रकार है— जीव, अशुद्ध निश्चयनय से रागादि औदयिकभावों का कर्ता है, और ये रागादि श्रदयिकभाव कर्मोदय के बिना नहीं होते इसलिये व्यवहारनय से द्रव्यकर्मकृत हैं । ( पंचास्तिकाय गाथा ५७-५८ तात्पर्यवृत्तिः टीका ) । वास्तव में रागादि न केवल जीवकृत हैं और न केवल पुद्गलकृत हैं । यदि रागादि केवल जीवकृत होते तो सिद्धभगवान में भी होने चाहिये थे । यदि रागादि केवल पुद्गलकृत होते तो पुस्तक आदि में भी पाये जाने चाहिये थे । यतः रागादि जीवपुद्गल ( द्रव्यकर्म ) के संबंध से उत्पन्न होते हैं । जैसे पुत्र न केवल माता का है और न केवल पिता का है, किन्तु माता और पिता के सम्बन्ध से पुत्र की उत्पत्ति होती है । विवक्षावश पुत्र कभी माता का कहलाता है और कभी पिता का कहलाता है, जैसे नाना के घर पुत्र माता का कहलाता है और बाबा के घर पर वही पुत्र पिता का कहलाता है। माता या पिता का कहलाता हुआ वह पुत्र माता श्रौर पिता दोनों का समझा जाता है । इसीप्रकार रागादि जीव के या पुद्गल के विवक्षावश कहे जाते हैं किन्तु रागादि को जीव या पुद्गल में से किसी एक के कहे जाने पर भी समझना यही चाहिए कि रागादि जीव श्रौर पुद्गल दोनों के संबंध से उत्पन्न हुए हैं, मात्र जीव की योग्यता से पुद्गलकर्मोदय बिना उत्पन्न नहीं हुए हैं । ( समयसार गाथा १११ तात्पर्य वृत्ति टीका ) में भी कहा है - 'यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षावशेन देवदत्तायाः पुत्रोयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोयमिति केचन वदति इति दोषो नास्ति । तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्ध निश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपा सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवतु ।' इसोप्रकार वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ४८ की संस्कृत टीका में भी कहा है । - जं. सं. 21-858 / V / मौखिक चर्चा रागादिक का स्वरूप या इनके उत्पादक कारण शंका - रागादिक में कुछ ज्ञानांश भी होता है, ऐसा अनुभव में आता है । रागादि आत्मा के कर्म हैं या आत्मा रागादि का उत्पादक है ? समाधान -- ' रागादि' चारित्रगुण की विकारीपर्यायें हैं; 'ज्ञान' चेतनागुण की पर्याय है । " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः || ५|४१ || " सूत्र द्वारा यह कहा गया है कि एकगुण में दूसरागुण नहीं रहता है । इसीलिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार संवराधिकार में निम्नप्रकार कहा है । Jain Education International उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि कोवि उवओगो । कोहे कोहो चेव हि उबओगे णत्थि खलु कोहो ।। १८६९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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