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________________ ९६८ ] [ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार : उसे प्रौदयिक कहते हैं। अत: क्रोधादि कषायभाव वास्तव में प्रौदयिक हैं । कहने मात्र से औदयिकभाव तो वह हो सकते हैं जिनमें कर्मोदय कारण न हो। परन्तु क्रोधादिकषायभाव में तो कर्मोदय प्रेरक-निमित्तकारण है, उदासीन ( अप्रेरक ) निमित्त नहीं है, क्योंकि कषायकर्मोदय होने पर ऐसा नहीं हो सकता कि जीव कषायभाव न करे। धर्मद्रव्य अप्रेरक निमित्त है, क्योंकि उसके सद्भाव में यदि जीव गमन करे तो धर्मद्रव्य सहकारी होता है, किन्तु प्रेरणा नहीं करता। इष्टोपदेश गाथा ३५ का संबंध द्रव्यकर्म से नहीं है, किन्तु बाह्य नोकर्मों से है। नोकर्मरूप बाह्यकारण रहने पर भी यदि अंतरंग में तज्जातीय कषाय का उदय नहीं है तो जीव के इस प्रकार के कषायभाव नहीं होंगे। क्रोधादिकषायभाव होने में मुख्य कारण कर्मोदय है अतः ये भाव वास्तव में प्रौदयिक हैं। प्रत्येकभाव यद्यपि परिणमन से होता है, किन्तु प्रत्येक भाव पारिणामिक नहीं हो सकता। पारिणामिकभाव वह है जिसमें कर्म का उदय उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम कारण न हो। पंचाध्यायी अध्याय २, गाथा १३० में जो यह कहा गया है-'परगुणों के आकार परिणमनशील क्रिया बंध है'-वह पारिणामिकभाव नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें पूर्वकर्मोदय कारण है। चौदहगणस्थानों में से आदि के चार गुणस्थानसम्बन्धी भावों की प्ररूपणा में दर्शनमोहनीयकर्म की विवक्षा है। सासादनगुणस्थान में दर्शनमोहनीय का उदय, उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम नहीं है अतः दर्शनमोहनीयसम्बन्धी लक्षण घटित होने से उस सासादनगुणस्थान को पारिणामिक कह दिया है, किन्तु चारित्रमोहनीय की अपेक्षा सासादनगुणस्थान प्रोदयिकभाव है (षट्खडागम पु० ५ पृ० १९७ ) किन्तु क्रोधादि कषायभाव में चारित्रमोहनीय के उदय का अभाव नहीं होता अतः क्रोधादि कषायभाव में सासादनगुणस्थानवाली विवक्षा घटित नहीं होती और न ऐसी विवक्षा का किसी आचार्य ने प्रयोग किया । दो या दो से अधिक द्रव्यसंबंधी हीनाधिकपना ( अल्पबहुत्व ) किसी भी कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से नहीं होता, क्योंकि अल्पबहुत्व पारस्परिक आपेक्षिकधर्म है । अतः अल्पबहुत्व, प्रमेयत्व, सत्त्वादिक अनेकोंभाव पारिणामिक हैं, किन्तु क्रोधादि कषायभाव कर्मोदय से होते हैं उनको अल्पबहुत्व के समान पारिणामिक नहीं कह सकते हैं। यदि शब्दनय ( शब्दनय, समभिरुढनय व एवंभूतनय ) की अपेक्षा से क्रोधादिकषाय को पारिणामिकभाव कहा जावे, क्योंकि इन तीनों शब्दनयों की दृष्टि में कार्यकारणभाव नहीं है अर्थात् कषायभाव का न कोई उपादान कारण है न कोई निमित्तकारण है। दोनों ही कारणों का अभाव है। इन तीनों नयों की दृष्टि में यह पारिणामिकभाव जीव का या द्रव्यकर्म का नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन तीनों नयों का विषय 'द्रव्य' नहीं है। इसीलिये इन नयों की दृष्टि में क्रोधादिकषाय का न तो कोई स्वामी है और न कोई आधार है। अतः इन नयों की दृष्टि में भी क्रोधादिकषाय जीव के या द्रव्यकर्म के पारिणामिकभाव नहीं कहे जा सकते ( कषायपाहड़ पुस्तक ११.३१८ व ३२०) 'क्रोधादिकषायभाव, जीव के पारिणामिकभाव हैं ऐसा कहना अयथार्थ है, अागमविरुद्ध है । मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्य सूत्र अध्याय २ ) में तथा अन्यग्रन्थों में भी कषायभाव को जीव का औदयिकभाव कहा है, क्योंकि कर्म के उदय से होता है। अतः क्रोधादिकषायभाव को जीव का प्रौद. यिकभाव कहना वास्तविक है और आगमानुकूल है । -ज.सं. 3-7-58/V/ सरदारमल कर्मोदय तथा विकारीमाव में कारणकार्य सम्बन्ध है शंका-क्या कर्मोदय और आत्मा के विकारी-भाव में कारण कार्य भाव नहीं है ? यदि है तो किस प्रकार का है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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