SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : जब मैं वहाँ से चलने लगा तो आप लोगों ने पर्युषण पर्व पर आने के लिए आग्रह किया। इस बीच धवला का प्रथम खण्ड प्रकाशित हो चुका था, आप लोगों ने बड़े उल्लास के साथ उसका स्वाध्याय किया और अमरावती पत्र पर पत्र पहुँचने लगे कि दूसरा खण्ड कब तक प्रकाशित हो जायेगा। जैसे-जैसे धवला के भाग प्रकाशित होते रहे वैसे-वैसे ही आप दोनों भाई अपने मकान के सामने स्थित लाला अर्हदासजी के मन्दिर में बैठकर नियमित स्वाध्याय करते रहे। __ सम्भवतः सन् १९४० के पर्युषण पर्वराज पर आपने मुझे सहारनपुर बुलवाया और अनेक प्रकार की शंकाओं का समाधान करते रहे। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि आपने स्कूल में अपनी शिक्षा उर्दू से प्रारम्भ की थी, हिन्दी का ज्ञान तो स्वोपार्जित ही है और धर्मशास्त्र का ज्ञान तो स्वयं ही स्वाध्याय करके एवं विज्ञजनों से चर्चा कर-करके प्राप्त किया है। तब से लेकर प्राय के अन्त तक आपसे बराबर सम्बन्ध बना रहा। 'कषायपाहडसूत्त' और 'प्राकृत पर संग्रह के प्रकाशन काल में मैं प्रत्येक मुद्रित फार्म आपके पास भेजता रहा और अर्थ करने में या प्रूफ संशोधन में रही हुई भूलों को लिखने के लिए प्रेरणा करता रहा । मेरे निवेदन पर आपने रही हुई अशुद्धियों का शुद्धिपत्र तक तैयार करके भेजा और मैंने उसे सधन्यवाद स्वीकार किया। आपके संसर्ग से जगाधरी के लाला इन्द्रसेनजी को सिद्धान्तग्रन्थों का स्वाध्याय करने के भाव जागृत हुए और उन्होंने आपकी प्रेरणा पर मुझे जगाधरी बुलाया और तीनों सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय किया। जब कभी आप मिलते तो मैं कहता-"गुरु तो 'गुड़' ही रह गया, आप तो 'शवकर' हो गये" तो आप अति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए कहते-"यह सब तो आपकी ही देन है।" अभी अभी दिनांक १६-२-८० के पत्र में अापने लिखा था-"मेरे पास जो कुछ भी है वह आपकी देन है।" उनकी इस कृतज्ञता अभिव्यक्ति के समक्ष मैं स्वयं नत मस्तक हूँ कि इतने महान व्यक्ति में कितनी सरलता और विनम्रता है। आजकल तो जिनको ७-८ वर्ष तक लगातार पढाते हैं वे छात्र भी अपने गुरु के प्रति इतनी कृतज्ञता प्रकट नहीं करते हैं; जबकि मैंने वास्तव में उनके साथ कोई ऐसी बड़ी बात नहीं की थी। आपकी निरीहवृत्ति की मैं क्या प्रशंसा करू, वह तो प्रत्येक शास्त्रज्ञ के लिए अनुकरणीय है। आपने जब देखा कि चन्द रुपयों के पीछे जीवन का यह अमूल्य समय मुकदमों की पैरवी करने में जाता है तो आपने अपनी अच्छी चलती हई प्रेक्टिस को छोड़ दिया और प्राप्त पूंजी में से कुछ अपने जीवन निर्वाह के लिए ब्याज पर रखकर शेष सारी जी अपने पुत्र को सौंप दी। भाग्य का ऐसा चक्र फिरा कि पुत्र सारी पूजी को व्यापार में खो बैठा। आपके सामने समस्या आई-अब क्या किया जावे? आपने सहज सरलता से कहा--"भाई, तुम्हें घर की सारी स्थिति मालूम है और तुम वयस्क हो, अब तुम स्वयं ही सोचो कि तुम्हें क्या करना चाहिये ?" अन्त में, पुत्र को नौकरी करने के लिए विवश होना पड़ा–पर आपने पूजी के लिए किसी के आगे हाथ फैलाना उचित नहीं समझा और जो अति सीमित आय थी उसीमें वे अपना और अपनी पत्नी का निर्वाह करते रहे। इधर ४० वर्षों में महंगाई किस कदर बढ़ी है, सभी जानते हैं। मैं तो अभी भी सोचता हूँ कि उन्होंने इतनी सीमित आय में कैसे अपना निर्वाह किया होगा। चातुर्मास स्थलों पर शास्त्र प्रवचन और शंकासमाधान के लिए प्रायः साधू संघ आपको पर्व के दिनों में बलाते थे और पाप जाते भी थे। किन्तु अन्त तक आपने कहीं भी किसी साधु से इसका संकेत तो क्या, आभास तक भी नहीं होने दिया कि घर पर क्या गुजरती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy