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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४७ अपने दुर्बल स्वास्थ्य और वृद्धावस्था के बावजूद भी आगत शङ्काओं का समाधान कर आप समाज के बुद्धिजीवियों का परम उपकार करते रहे थे। मगसिर कृष्णा सप्तमी शुक्रवार वीर निर्वाण संवत् २५०७ के दिन आप स्वर्गवासी हुए। यह समाचार सुनकर अत्यन्त वेदना हुई, हृदय रो उठा; एक निधि ही खो बैठे। पर किया भी क्या जा सकता है ? होनहार टलती नहीं। आपका अभाव हमें सदैव खटकता रहेगा। आदर्श-जीवन * स्व० पं० हीरालाल सि० शास्त्री, न्यायतीर्थ साढूमल ( झांसी) यों तो सहारनपुर से मेरा सम्बन्ध सन् १९२४ से है, जब मैं बनारस में धर्माध्यापक था और कार्तिक में होने वाले 'उछाह' में शास्त्र प्रवचन के लिए बुलाया गया था। पर श्री रतनचन्दजी मुख्तार और उनके छोटे भाई श्री नेमिचन्दजी वकील सा० से मेरा परिचय तब हुआ जब मैं सन् १९३७ में श्री धवल सिद्धान्त की 'अमरावती प्रति' को सहारनपुर के सुप्रसिद्ध रईस लाला जम्बूप्रसादजी प्रद्युम्न कुमारजी के मन्दिर में स्थित प्रति से मिलाने के लिये वहाँ गया हुअा था। जैसे ही आप दोनों भाइयों को मेरे वहाँ पहुँचने का पता चला तो आप मेरे पास आये और बोले-"आप समय दीजिये और हमें सुनाइये कि इस ग्रन्थ में क्या वर्णन है ?" मैं सूनकर चौंका-क्योंकि मेरे पास किसी से बात करने को भी समय नहीं था। मई-जून की गर्मी और जे से १० बजे तक और मध्याह्न १ बजे से ५ बजे तक मैं प्रतियों के मिलान में लगा रहता था। किन्तु जब दोनों भाइयों का प्रबल आग्रह देखा तो मैंने कहा-यदि आप लोग २ घण्टे का समय हमें प्रतियों के मिलान दे दें तो मैं मध्याह्न में १ घण्टे का समय आप लोगों को ग्रन्थराज के प्रवचन के लिए दे सकता हूँ। दोनों भाइयों ने सहर्ष मेरी बात को शीघ्रता से स्वीकार किया। वे प्रातःकाल प्रतियों का मिलान कराने के लिए अपने घर से मेरे पास आते और चूकि उन दिनों कचहरी खुली हुई थी, उसके 'लंच-टाइम' में सहारनपुर की भीषण गर्मी में कचहरी से २ मील चल कर आते और ग्रन्थराज का प्रवचन सुनते और फिर वापिस कचहरी चले जाते । यह क्रम मेरे वहाँ रहने तक जारी रहा। एक दिन मैंने पूछा-'आपके यहाँ तो महाविद्वान् श्रीमान् पं० माणिकचन्द्रजी, न्यायाचार्य रहे हैं, आपने उनसे ग्रन्थराज के प्रवचन सुनने का लाभ क्यों नहीं उठाया?' तब वे बोले-'हम लोगों ने अनेक बार उनसे इसके लिए निवेदन किया था, पर सदा ही उनका एक ही उत्तर था कि इन सिद्धान्तग्रन्थों को पढ़ने और सुनने का गृहस्थों को अधिकार नहीं है ।' मैंने कहा-'ऐसी तो कोई बात नहीं है। मैंने तो ग्रन्थराज के सारे पत्र पलटे हैं, कहीं भी गृहस्थों को पढ़ने या सुनने का कोई निषेध नहीं दिखा'--तो आपने बताया कि हमें तो 'सागारधर्मामृत' के 'श्रावको वीर चर्याहः' आदि श्लोक की दुहाई देकर यही बताया गया है । तब मैंने 'सागारधर्मामृत' खोलकर और उक्त श्लोक की स्वोपज्ञ टीका निकालकर कहा-"इसमें तो 'सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य' लिखा है और सूत्र तो गणधर-ग्रथित प्रत्येक बुद्ध कथित या श्रुतके वली-भरिणत कहे जाते हैं। ये धवलादि ग्रन्थ तो उनमें से किसी के द्वारा भी रचित नहीं हैं", तब आप लोगों ने सन्तोष की साँस ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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