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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८४५ कहना पड़ेगा, क्योंकि इसका आचरण तो बहुत ऊंचा है। मात्र आचरण या प्रवृत्ति को चारित्र संज्ञा नहीं दी गई है। यदि आचरण के साथ-साथ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरणरूप चारित्र मोहनीय का अनुदय है तो उसको चारित्र संज्ञा दी गई है अन्यथा नहीं। यदि कहा जाय कि मात्र अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहोदय से असंयत नहीं हो जाता, आचरण से भ्रष्ट होने पर ही असंयत होता है तो उन विद्वानों का ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सिद्धान्त प्रन्थों से विरोध आता है। अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण के उदय होने पर लेश मात्र भी चारित्र नहीं रहता है। यदि अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण के उदय में भी चारित्र स्वीकार किया जायगा तो मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में सम्यग्दर्शन का सद्भाव रहने में भी कोई बाधा नहीं पायगी। तथा ऐसा मानने पर उन विद्वानों के मत में कर्मसिद्धान्त ग्रन्थों का सम्पूर्ण विवेचन व्यर्थ हो जायगा, निमित्त अकिचित्कर हो जायगा। "घातिया कर्मोदय होने पर जीव उसमें जुडे या न जुड़े यह सब मात्र उपादान के पुरुषार्थ पर निर्भर है। इस मिथ्यासिद्धान्त की सिद्धि हो जायगी। इस सिद्धान्त की सिद्धि हो जाने पर कर्मों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी; क्योकि ज्ञानावरण-कर्मोदय रहते हुए भी जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर उसमें नहीं जुड़ता तो केवलज्ञान की उत्पत्ति को कौन रोक सकेगा ? किन्तु ये सब मिथ्या कल्पना है। श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है "मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।" ( १०१) पहले ही मोहनीयकर्म का क्षय करके अन्तर्मुहूर्तकाल के अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों का एक साथ क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है। अर्थात् इन कर्मों का क्षय केवलज्ञानोत्पत्ति में कारण है। यदि यह कहा जाय कि पूर्ण स्वरूपाचरणचारित्र तो संज्वलन कषाय के अभाव में होगा, किन्तु उसका ग्रंश चतुर्थगुणस्थान में प्रगट हो जाता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यथाख्यात (स्वरूपाचरण ) चारित्र से पूर्ववर्ती सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय इन चार चारित्रों का अंश भी चतुर्थ गुणस्थान में मानना पड़ेगा। पांचों चारित्र एक साथ किसी भी एक जीव के नहीं हो सकते हैं। फिर उन पांचों के अंश एक साथ एक जीव में कैसे सम्भव हो सकता है। जब पंचम गुणस्थान में मात्र संयमासंयम चारित्र होता है, सूक्ष्म साम्पराय तथा यथाख्यात चारित्र (स्वरूपाचरण) का अंश भी नहीं होता, फिर चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र के अंश की कल्पना करना मिथ्यात्व नहीं तो क्या सम्यक्त्व है ? चारित्र का लेश मात्र भी जहाँ पर होता है वहां पर असंख्यात गुणीनिर्जरा होती है, किंतु श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने मूलाचार के समयसार अधिकार में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि के असंयतभाव के कारण निर्जरा से अधिक बंध बतलाया है। असंयत सम्यग्दृष्टि के तप को भी प्रकिंचित्कर कहा है। संयममार्गणा के भेदों में स्वरूपाचरणचारित्र कोई भेद नहीं है। यथाख्यातचारित्र का ही दूसरा नाम स्वरूपाचरणचारित्र है, जैसा कि परमात्म प्रकाश अ.२ गा.३६ की टीका में कहा है। संयममार्गणा में तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि को असंयत कहा है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने चारित्रपाहड़ में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वाचरण बतलाया है। जो इन आर्ष वाक्यों की श्रद्धा नहीं करता, किन्तु इन आर्ष वाक्यों के विपरीत अनार्ष वाक्यों पर श्रद्धा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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