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________________ [ पं० रतनचन्द जंन मुख्तार : "यस्वात्मत्रययो में दज्ञानमपि नाखवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोपि निरस्तः ।" [ स० स० गा० ७२ आ० ख्या० ] ४४ ] जो म्रात्मा और आखवों का भेदज्ञानी है यदि वह भी क्रोधादिक आस्रवों से निवृत्त नहीं होता तो वह ज्ञानी ही नहीं है । ऐसा कहने से ज्ञान नय का निराकरण हुप्रा । इसी बात को भी जयसेन आचार्य ने स्टान्त द्वारा बहुत ही सुन्दर रूप से स्पष्ट किया है "यथा वा स एव प्रदीपसहित पुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टिय किं करोति न किमपि तथायं जीवः श्रद्धानज्ञान सहितोऽपि पौरवस्थानीय चारित्रबलेन रागाविविकल्परूपा दसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यान्न किमपीति । " 1 अर्थ - जैसे दीपक को रखने वाला पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूप पतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान, दीपक व दृष्टि कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई । तैसे ही श्रद्धान और ज्ञान सहित भी है, परन्तु चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है अर्थात् चारित्र को धारण नहीं करता है तो सम्यम्बद्धान तथा सम्यग्ज्ञान उसका क्या हित कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी हित नहीं कर सकते । इन आर्ष प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र नहीं है, क्योंकि चारित्र की घातक प्रत्याख्यानावरणकषायरूप कर्म का उदय है तथा संयम रहित चतुर्थ गुणस्थान का सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में हितकारी नहीं है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि असंयतसम्यग्दृष्टि की क्या अनर्गल प्रवृत्ति होती है ? क्या वह मांस आदि का भक्षण करता है ? क्या वह भैरों, पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि असंयत देवियों व देवों की पूजा करता है ? क्या वह कुगुरु, कुदेव श्रादि की पूजा करता है ? यदि इन कार्यों को नहीं करता तो उस प्रवृत्ति को स्वरूपाचरणचारित्र या उसका अंश क्यों नहीं कहा जाता ? यह बात सत्य है कि असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य मद्य, मांस आदि का सेवन नहीं करता और न जुआ आदि सप्त व्यसन का सेवन करता है, क्योंकि इनके सेवन से सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है, जैसा कि श्री अमितगति आचार्य ने सुभाषितरत्नसंदोह श्लोक ५१४, ५४७, ५९१, ६३४ में कहा है तथा जिन-वचन में शंका आदि दोषों को नहीं लगने देता । तथा कुगुरु, कुदेव आदि की पूजा भी नहीं करता। यद्यपि प्रसंयत सम्यग्दृष्टि की ऐसी प्रवृत्ति होती है, किन्तु प्राचार्यों ने इसी प्रवृत्ति की संज्ञा सम्यक्त्वाचरण दी है, स्वरूपाचरणचारित्र नहीं कहा है ( श्री कुन्दकुन्द आचार्य विरचित चारित्र पाहुड़), कुछ ऐसे भी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्टष्टि हैं जो पूर्व में सम्यग्दष्टि संयत मुनि थे, किन्तु प्रत्याख्यानावरण-अप्रत्याख्यानावरणरूप चारित्रमोह का उदय हो जाने से चतुर्थगुणस्थान को प्राप्त हो गये हैं । यद्यपि उनका आचरण पूर्ववत् मुनि सदृश है तथापि उस आचरण को चारित्र संज्ञा नहीं दी गई । इतना ऊँचा आचरण होते हुए भी वह चतुर्थं गुणस्थानवर्ती सम्यग्दष्टि असंयत ही है, क्योंकि उसके सर्वघाति अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरणरूपचारित्रमोह का उदय है । जिस चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि का आचरण धावक ( देशव्रती ) या मुनितुल्य नहीं, किन्तु मानाकि मांसाहार धाविरूप प्रवृत्ति नहीं है उस असंयतसम्पदष्टि के ऐसे प्रावरण को जो विद्वान स्वरूपाचरणचारिण कहते हैं उनके मत में, जिसकी प्रवृत्ति तथा आचरण मुनि तुल्य है, उस आचरण को परम स्वरूपाचरणचारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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